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भगवान बुध्द पर निबंध (Lord Buddha Essay in Hindi)

भगवान बुध्द ईश्वर के अवतार माने जाते हैं। उनका जन्म दुनिया के कल्याण के लिए हुआ था। वो अत्यंत भावुक और संवेदनशील थे। वो किसी का दर्द नहीं देख पाते थे। इसलिए उनके पिता उन्हें संसार के सारे विलासिताओं में लगा कर रखते थे, फिर भी उनका मन सांसारिक मोह-माया में कहां लगने वाला था।

भगवान बुध्द पर छोटे-बड़े निबंध (Short and Long Essay on Lord Buddha in Hindi, Bhagwan Buddha par Nibandh Hindi mein)

भगवान बुद्ध का जीवन – निबंध 1 (300 शब्द).

“एशिया का प्रकाश” (लाइट ऑफ एशिया) के नाम से विख्यात गौतम बुद्ध का जन्म ही दीन-दुखियों के कल्याण के लिए हुआ था। बुद्ध (जिसे सिद्धार्थ गौतम के नाम से भी जाना जाता है), एक महान ज्ञानी, ध्यानी और आध्यात्मिक शिक्षक और गुरु थे, जो प्राचीन भारत (5वीं से 4वीं शताब्दी ई.पू.) में रहते थे। बौद्ध धर्म का विश्व भर में स्थापना और प्रचार-प्रसार उनके और उनके अनुयायियों के अथक प्रयासों से हुआ।

जन्म एवं जन्म स्थान

ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म छठी शताब्दी 563 ईसा पूर्व में नेपाली तराई के लुम्बिनी में हुआ था। बुद्ध बनने से पहले, उन्हें सिद्धार्थ कहा जाता था। उनके पिता का नाम शुद्दोधन था, जो कपिलवस्तु राज्य के शासक थे। उनकी माता का नाम माया देवी था, जो सिद्धार्थ के जन्म के तुरंत बाद मर गईं। उनका पालन-पोषण बड़े ही लाड-प्यार से उनकी विमाता गौतमी ने किया। जब गौतम का जन्म हुआ, तब एक भविष्यवाणी हुई थी, जिसमें कहा गया था कि “यह बच्चा एक महान राजा या महान शिक्षक या संत होगा।”

बाल्यकाल से ही अनोखे

वो बचपन से ही बाकी बच्चों से काफी अलग थे। वे दुनिया के सभी ऐसो-आराम के साथ एक सुंदर महल में रहते थे। लेकिन उनके पिता परेशान थे, क्योंकि गौतम अन्य राजकुमारों की तरह व्यवहार नहीं करते थे। उनका मन सांसारिक भोग-विलास से कोसो दूर रहता था। उनके शिक्षक आश्चर्यचकित होते थे, क्योंकि वह बिना पढ़ाए ही बहुत कुछ जानते थे।

अत्यंत दयालु सिद्धार्थ

वे शिकार करना पसंद नहीं करते थे। हालांकि वह हथियारों का उपयोग करने में बहुत माहिर और विशेषज्ञ थे। वे बहुत दयालु थे। एक बार उन्होंने एक हंस की जान बचाई जिसे उनके चचेरे भाई देवब्रत ने अपने बाणो से मार गिराया था। वह अपना समय अकेले चिंतन करने में व्यतीत किया करते थे। कभी-कभी, वह एक पेड़ के नीचे ध्यान में बैठ जाते थे। वह जीवन और मृत्यु के सवालों पर विचार करते रहते थे।

भगवान बुद्ध का विवाह एवं घर त्याग

भगवान बुद्ध का ध्यान हटाने के लिए उनके पिता ने उनका विवाह अत्यंत रुपवती राजकुमारी यशोधरा से कर दिया था। लेकिन पिता का लाखो प्रयास भी, उनके दिमाग को बदल नहीं सका। जल्द ही, उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ। वो इससे भी खुश नहीं हुए। तब उन्होंने दुनिया को छोड़ने का फैसला किया। एक अंधेरी रात, अपनी पत्नी और बेटे को अकेला सोता छोड़कर, गौतम ने अपना घर त्याग दिया और जंगल में चले गए।

घर को छोड़ते ही वे दुनिया के सभी संबंधों से मुक्त हो गये। उस दिन से वह भिखारी की तरह रहने लगे। वह कई सवालों के जवाब जानना चाहते थे। वे वृद्धावस्था, बीमार शरीर और गरीबी को देखकर परेशान थे। ऐसी बातों ने उन्हें जीवन के सुखों से विचलित कर दिया था।

सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कैसे बने – निबंध 2 (400 शब्द)

छठी शताब्दी से पहले, भारत में धर्म और वेदों की शिक्षाओं को भूला दिया गया था। हर जगह अराजकता ही अराजकता फैली थी। कपटी पुजारियों ने धर्म को व्यापार बना दिया था। धर्म के नाम पर लोगों ने क्रूर पुजारियों के नक्शेकदम पर चलते हुए निरर्थक कर्मकांड किए। उन्होंने निर्दोष गूंगे जानवरों को मार डाला और विभिन्न बलिदान किए। उस समय देश को बुध्द जैसे धर्म-सुधारक की ही आवश्यकता थी। ऐसे समय में, जब हर जगह क्रूरता, पतन और अधर्म था, लोगों को बचाने और समानता, एकता और लौकिक प्रेम के संदेश को हर जगह प्रचारित करने के लिए सुधारक बुध्द का जन्म किसी अवतार से कम न था।

अत्यंत संवेदनशील

वह एक बहुत ही संवेदनशील युवक थे, जिसका दूसरों के कल्याण कार्य में बहुत मन लगता था। उनके पिता ने उन्हें महल के शानदार जीवन में उलझाये रखने की पूरी कोशिश की। वह नहीं चाहते थे कि युवा सिद्धार्थ बाहर जाएं और दुनिया का दुख देखें। लेकिन इतिहास हमें बताता है कि युवा सिद्धार्थ अपने सारथी, चन्ना के साथ तीन अवसरों पर बाहर गए थे और जीवन का कटु सत्य देखा।

जीवन की सत्यता से साक्षात्कार

सिद्धार्थ को एक बूढ़े आदमी, एक बीमार आदमी और एक शव के रूप में इस जीवन का दुख-दर्द दिखा। वह ऐसे सभी दुखों से मानवता को मुक्ति दिलाने के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे। उन्होंने लंबे समय तक इस समस्या पर ध्यान केंद्रित किया। अंत में एक उपदेशक के मुंह से कुछ शब्द सुना, जिसने उन्हें दुनिया को त्यागने के लिए प्रोत्साहित किया, उन्होंने ध्यान लगाने लिए महल छोड़ने और जंगल में जाने का फैसला किया। एक दिन वे अपनी प्यारी पत्नी यशोधरा और बेटे राहुल को आधी रात में सोता हुआ छोड़ गये। उस समय उनकी आयु केवल 29 वर्ष थी।

सत्य और परम ज्ञान की खोज

गौतम सत्य और परम ज्ञान पाना चाहते थे। वह जंगल में अपने पाँच विद्यार्थियों के साथ गए। लेकिन उन्हें शांति नहीं मिली। यहां तक कि उन्होंने शांति पाने के लिए अपने शरीर पर अत्याचार किया। लेकिन यह भी व्यर्थ था। दूसरी ओर वे बहुत कमजोर और अस्वस्थ हो गये थे, जिसे ठीक होने में 3 महीने लग गए।

सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कैसे बने ?

उन्होंने सत्य और ज्ञान की अपनी खोज को नहीं रोका। एक दिन वह ध्यान करने के लिए बोधि वृक्ष के नीचे बैठ गये। उन्होंने वहां ध्यान लगाया। यह वह क्षण था, जब उन्हें आत्मज्ञान मिला। उन्होंने जीवन और मृत्यु के मर्म को समझा। अब उन्होंने इस ज्ञान को दुनिया के साथ साझा करने का फैसला किया। अब उन्हें बुद्ध के रूप में जाना जाने लगा।

उन्होंने दुनिया को सत्य और अहिंसा की शिक्षा दी। उन्होंने लोगों को यह भी बताया कि मनुष्य की इच्छाएँ उसकी सभी परेशानियों का मूल कारण हैं। इसलिए व्यक्ति को उन्हें दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने लोगों को शांतिपूर्ण, संतुष्ट और अच्छा जीवन जीने की सलाह दी। आज, उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म, बौद्ध धर्म है, जिसके दुनिया भर में लाखों अनुयायी हैं।

Essay on Lord Buddha

सिद्धार्थ का जीवन की सत्यता से सामना – निबंध 3 (500 शब्द)

गौतम बुद्ध दुनिया के महान धार्मिक गुरुओं में से एक थे। उन्होंने सत्य, शांति, मानवता और समानता का संदेश दिया। उनकी शिक्षाएं और बातें बौद्ध धर्म का आधार बनी। यह दुनिया के प्रमुख धर्मों में से एक हैं, जिसका अनुसरण मंगोलिया, थाईलैंड, श्रीलंका, जापान, चीन और बर्मा आदि जैसे देशों में किया जाता है।

सिद्धार्थ बचपन से चिंतनशील

सिद्धार्थ बालपन से ही चिंतनशील थे। वह अपने पिता की इच्छाओं के खिलाफ ध्यान और आध्यात्मिक खोज की ओर प्रवृत्त थे। उनके पिता को डर था कि सिद्धार्थ घर छोड़ सकते हैं, और इसलिए, उन्हें हर समय महल के अंदर रखकर दुनिया की कठोर वास्तविकताओं से बचाने की कोशिश की।

जीवन की सत्यता से सामना

बौद्ध परंपराओं में उल्लेख है कि जब सिद्धार्थ ने एक बूढ़े व्यक्ति, एक बीमार व्यक्ति और एक मृत शरीर का सामना किया, तो उन्होंने महसूस किया कि सांसारिक जुनून और सुख कितने कम समय तक रहते हैं। इसके तुरंत बाद उन्होंने अपने परिवार और राज्य को छोड़ दिया और शांति और सच्चाई की तलाश में जंगल में चले गए। वह ज्ञान प्राप्त करने के लिए जगह-जगह भटकते रहे। उन्होंने कई विद्वानों और संतों से मुलाकात की लेकिन वे संतुष्ट नहीं हुए। उनका गृह-त्याग, इतिहास में ‘महाभिनिष्क्रमण’ के नाम से प्रसिध्द है।

बोधगया में बने बुध्द

अंत में उन्होंने महान शारीरिक कष्ट सहन करते हुए कठिन ध्यान शुरू किया। छह साल तक भटकने और ध्यान लगाने के बाद सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति हुई जब वह गंगा किनारे बसे बिहार शहर के ‘गया’ में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान में बैठे थे। तब से ‘गया’ को ‘बोधगया’ के नाम से जाना जाने लगा। क्योंकि वही पर भगवान बुद्ध को ज्ञान का बोध हुआ था।

सिद्धार्थ अब पैंतीस साल की उम्र में बुद्ध या प्रबुद्ध में बदल गये। पिपल वृक्ष, जिसके नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, बोधिवृक्ष के रूप में जाना जाने लगा।

सारनाथ में प्रथम उपदेश – धर्मचक्र प्रवर्तन

बुद्ध ने जो चाहा वह प्राप्त किया। उन्होंने वाराणसी के पास सारनाथ में अपने पहले उपदेश का प्रचार किया, जिसे धर्मचक्र-प्रवर्तन की संज्ञा दी गयी। उन्होंने सिखाया कि दुनिया दुखों से भरी है और लोग अपनी इच्छा के कारण पीड़ित हैं। इसलिए आठवीं पथ का अनुसरण करके इच्छाओं पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। इन आठ रास्तों में से पहला तीन शारीरिक नियंत्रण सुनिश्चित करेगा, दूसरा दो मानसिक नियंत्रण सुनिश्चित करेगा, और अंतिम तीन बौद्धिक विकास सुनिश्चित करेंगे।

बुद्ध की शिक्षा और बौध्द धर्म

बुद्ध ने सिखाया कि प्रत्येक जीव का अंतिम लक्ष्य ‘निर्वाण’ की प्राप्ति है। ‘निर्वाण’ न तो प्रार्थना से और न ही बलिदान से प्राप्त किया जा सकता है। इसे सही तरह के रहन-सहन और सोच से हासिल किया जा सकता है। बुद्ध भगवान की बात नहीं करते थे और उनकी शिक्षाएँ एक धर्म से अधिक एक दर्शन और नैतिकता की प्रणाली का निर्माण करती हैं। बौद्ध धर्म कर्म के कानून की पुष्टि करता है जिसके द्वारा जीवन में किसी व्यक्ति की क्रिया भविष्य के अवतारों में उसकी स्थिति निर्धारित करती है।

बौद्ध धर्म की पहचान अहिंसा के सिद्धांतों से की जाती है। त्रिपिटिका बुद्ध की शिक्षाओं, दार्शनिक प्रवचनों और धार्मिक टिप्पणियों का एक संग्रह है। बुद्ध ने 483 ई.पू. में कुशीनगर (यू.पी.) में अपना निर्वाण प्राप्त किया। जिसे ‘महापरिनिर्वाण’ कहते हैं।

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गौतम बुद्ध पर निबंध Essay on Gautam Buddha in Hindi

गौतम बुद्ध पर निबंध Essay on Gautam Buddha in Hindi

इस लेख में हमने गौतम बुद्ध पर निबंध (Essay on Gautam Buddha in Hindi) बेहद सरल व आकर्षक रूप से लिखा है। इसमें गौतम बुद्ध का जन्म,प्रारंभिक जीवन,शिक्षा दीक्षा,उपदेस,मृत्यु,तथा 10 लाइन के बरे मे लिखा गया है।

भगवान बुद्ध ने मानव समाज को जीने की नई दिशा दिखाई इसलिए बुद्ध के जीवन पर निबंध कक्षा 5 से कक्षा 12 तक परीक्षाओं में विभिन्न रूपों से पूछ लिया जाता है।

Table of Contents

प्रस्तावना गौतम बुद्ध पर निबंध (Essay on Gautam Buddha in Hindi)

ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध के पीछे उनके भक्तों का एक जन सैलाब उमड़ पड़ा था जो आगे चलकर भिक्षु और उनके अनुयायियों में परिवर्तित हो गए और पूरी दुनिया में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया।

इसी कारण बोधिसत्व दुनिया के कई देशों में लोगों को जीवन जीने की कला सिखा रहा है। गौतम बुद्ध ने जब लोगों को कुरीति वश धर्म का आडंबर करते देखा तो उन्होंने कड़े शब्दों में कटाक्ष किया।

एक बार महात्मा बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के लिए गांव गांव में विचरण कर रहे थे तभी उनकी नजर कुछ लोगों द्वारा दी जा रही जानवरों की कुर्बानी पड़ी तो उन्होंने रुक कर उसका कारण पूछा। 

उन लोगों ने उन्हें बताया की उनका ईश्वर उन्हें ऐसा करने के लिए कहता है। तब उन्होंने तुरंत कहा कि अगर तुम्हारा ईश्वर तुम्हें बेजुबान की जान लेना सिखाता है तो ऐसे ईश्वर को मानने की कोई जरूरत नहीं।

आज भी दुनिया का एक बड़ा वर्ग ध्यान और साधना के लिए बौद्ध क्रियाकलापों को पसंद करता है क्योंकि इनमें भौतिक अवलंबन के स्थान पर आत्मा पर विश्वास की अधिकता होती है।

गौतम बुद्ध का जन्म Birth of Gautam buddha in Hindi

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसवी पूर्व वर्तमान नेपाल के कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी में हुआ था। उनके पिता का नाम शुद्धोधन था जो क्षत्रिय राजा थे। उनके जन्म के 7 दिन बाद उनकी माता महामाया का देहांत हो गया था जिसके कारण उनकी मौसी और राजा शुद्धोधन की दूसरी पत्नी महाप्रजापति गौतमी ने उनका पालन पोषण किया। 

बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ का अर्थ होता है जो सिद्धियां लेने के लिए पैदा हुआ हो। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण उनका नाम गौतम भी पड़ा।

उनके जन्म के बाद जब राजपुरोहित को बुलाकर उनकी कुंडली बनाने को कहा गया तो राजपुरोहित ने कहा कि यह बालक या तो एक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या एक महान पथ प्रदर्शक।

गौतम बुद्ध का प्रारम्भिक जीवन Gautam Buddha early life in Hindi

गौतम बुद्ध का प्रारंभिक जीवन बेहद सुख सुविधाओं से भरा हुआ था लेकिन बचपन से ही उनके मन में करुणा और दया की अधिकता थी। जिसके कारण जब वे किसी भी जीव जंतु को तकलीफ में देखते थे तो उनका मन भी करुणा से भर आता था।

एक बार घुड़दौड़ में दौड़ते हुए घोड़े के मुंह से झाग निकलते देखा तो उन्होंने घोड़ों को थका हुआ समझकर उन्हें रोक दिया था और जीती हुई बाजी भी स्वयं ही हार गए थे।

इसका एक कारण यह भी था कि सिद्धार्थ किसी को दुखी नहीं देख पाते थे इसलिए उनके चचेरे भाई देवदत्त द्वारा घायल किए गए हंस कि उन्होंने सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा भी की।

गौतम बुद्ध एक राजा के इकलौते पुत्र होने के कारण उन्हें महल में हर तरह की सुख सुविधाओं के बीच रखा जाता था। माना जाता है कि जहां पर भी टहलते थे वहां मखमल के गलीचे बिछाए जाते थे ताकि उनके पैरों को कोई हानि न हो।

उनके पास हर ऋतु में रहने के लिए तीन प्रकार के महल थे और दास दसियों की भी कोई कमी नहीं थी। लेकिन बचपन से ही वे कुछ खोए खोए से रहते थे और खिड़की से बाहर देखा करते थे।

16 वर्ष की आयु में गौतम बुद्ध का विवाह यशोधरा के साथ हुआ और अपने पिता के द्वारा दिए गए आलीशान महल में वे यशोधरा के साथ खुशी-खुशी रहने लगे जिससे उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया।

गौतम बुद्ध की शिक्षा-दीक्षा Education of Gautam Buddha in Hindi

गौतम बुद्ध के शुरुवाती शिक्षा दीक्षा गुरु विश्वामित्र के समीप संपूर्ण हुई। जिसमें उन्होंने वेद, उपनिषद, शास्त्र, श्रुति, स्मृति के साथ-साथ राजनीति, युद्ध कला की शिक्षा भी ली।

गुरु विश्वामित्र के आश्रम में इनके जैसा मेधावी छात्र कोई और न था क्योंकि इन्हें घुड़सवारी, तीरंदाजी, कुश्ती और रथ हांकने की कला में महारत हासिल हो गई थी।

समस्त वेद और ज्ञानार्जन के बावजूद भी सिद्धार्थ का मन हमेशा कुछ प्रश्नों में उलझा रहता और वह हर किसी से कुछ न कुछ प्रश्न करते पाए जाते।

एक बार सिद्धार्थ ने जंगल में घूमने की इच्छा जाहिर की और सेनापति उन्हें जंगल की सैर कराने के लिए रथ पर बैठा कर ले गए। जहां पर उन्होंने एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जिसके दांत टूट गए थे, बाल पक गए थे शरीर रोगी हो गया था और वह डंडे के सहारे चल रहा था।

उन्होंने सेनापति से पूछा कि यह व्यक्ति ऐसा क्यों है? तो सेनापति ने जवाब दिया की वह व्यक्ति बुड्ढा हो चुका है जिससे उसका शरीर पूरी तरह से कमजोर हो गया है। तो सिद्धार्थ ने पूछा कि क्या सभी बुड्ढे होते हैं? सेनापति ने जवाब दिया कि हां! हम सभी को एक न एक दिन बुड्ढा जरूर होना है।

दूसरी बार जब सिद्धार्थ जंगल घूमने गए तो एक व्यक्ति उनके रथ के सामने से गुजरने लगा जिसके कंधे झुक गए थे शरीर सूख चुका था और वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। सिद्धार्थ ने सेनापति से फिर वही प्रश्न किया और सेनापति ने वही उत्तर दिया कि हम सभी की ऐसी अवस्था आती है।

तीसरी बार जब वे जंगल की सैर करने निकले तो उन्होंने एक अर्थी देखी तो सेनापति से पूछा कि यह क्या है? तो सेनापति ने जवाब दिया कि वह जो व्यक्ति आपने पिछले दो बार देखा था अब उसकी मृत्यु हो चुकी है इसलिए हर कोई छाती पीट-पीटकर रो रहा है।

उन्होंने फिर सेनापति से वही प्रश्न पूछा कि क्या हम सब एक दिन मर जाएंगे? तो सेनापति ने जवाब दिया कि हां! सभी को एक न एक दिन जरुर मरना है। इस दृश्य ने सिद्धार्थ की आंखें खोल दी और उन्होंने नश्वर जीवन को त्याग कर सन्यासी बनने का व्रत धारण कर लिया।

गौतम बुद्ध के उपदेश Teachings of Gautam buddha in Hindi

अपनी पत्नी यशोधरा और बच्चे राहुल तथा कपिलवस्तु जैसे विशाल राज्य को को छोड़कर गौतम बुद्ध तपस्या करने चले गए थे। जहां पर वे जप, तप, ध्यान, धारणा समाधि को सिद्ध कर एक बैरागी की अवस्था में पहुंच गए।

35 वर्ष की आयु तक उन्होंने तपस्या की, जिसके बाद वैशाखी पूर्णिमा के दिन गया के एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हुई। तभी से सिद्धार्थ को भगवान बुद्ध कह कर पुकारा जाने लगा।

गौतम बुद्ध 80 साल की उम्र तक संस्कृत भाषा में उपदेश देने की जगह सीधी साधी पाली भाषा में लोगों को उपदेश दिया करते थे।

उनके उपदेशों में उन्होंने अहिंसा, सेवा, दया, करुणा, संवेदना, सहानुभूति और क्षमा को स्थाई सुख का साधन बताया है।

उनके अनुयायियों ने उनके द्वारा दिए गए उपदेशों को पूरी दुनिया के कोने कोने में फैलाया। उनके सबसे करीबी शिष्य आनंद ने उनके बाद कार्यभार संभाला और बौद्ध संप्रदाय को आगे बढ़ाया।

गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानी Motivational story of Gautam Buddha in Hindi

भगवान बुद्ध की सबसे प्रेरक कहानी उनकी क्षमा भावना को उजागर करता है। जब एक जंगल में एक डाकू का आतंक हुआ करता था। जंगल में आने जाने वाले राहगीरों को वह डाकू लूट कर उनकी हत्या कर देता था और उनकी उंगली को काटकर गले में पहन लेता जिससे उसका नाम अंगुलिमाल डाकू पड़ गया था।

एक बार गौतम बुद्ध भी उसी जंगल से गुजर रहे थे तो उनके सामने अंगुलिमाल डाकू आया और सब कुछ उसके हवाले कर देने का आदेश दिया। 

उसके आदेश को सुनकर महात्मा बुद्ध ने उसे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने बताया कि वह यह सब अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए करता है।

बुद्ध ने उससे पूछा कि क्या तुम्हारे इस काम में तुम्हारा परिवार साथ देता है? क्या तुम्हारे पाप कर्मों में तुम्हारे परिवार सम्मिलित होगा? तो इस प्रश्न पर अंगुलिमाल डाकू विचार में पड़ गया और उसने कहा कि हां क्योंकि मैं यह सब उनके लिए ही तो करता हूं।

भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल डाकू से कहा कि तुम एक बार उनसे पूछ लो। इस पर वह डाकू बुद्ध का उपहास उड़ाते हुए कहा कि अगर मैं पूछने जाऊं तो तुम भाग जाओगे। तो बुद्ध ने कहा कि तुम मुझे बांधकर पूछने जा सकते हो।

अंगुलिमाल डाकू ने ऐसा ही किया और अपने परिवार से जाकर पूछा तो उनके परिवार ने उनके पाप में हिस्सेदारी उठाने के लिए मना कर दिया बल्कि उसके द्वारा किए जा रहे पाप कर्म को उसका कर्तव्य बता दिया।

इस बात से अंगुलिमाल बहुत दुखी हुआ और जंगल वापस जाकर भगवान बुद्ध के हाथ पैर खोल कर उनके चरणों में गिर गया और पाप मुक्ति का मार्ग पूछने लगा।

गौतम बुद्ध की मृत्य Death

80 साल की उम्र में भगवान बुद्ध ने कुंडा नामक एक लोहार के यहां रुक कर भोजन तथा विश्राम किया था जिसके बाद वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे।

उनके बीमार पड़ने पर लोहार बहुत ही चिंतित हुआ और भगवान बुद्ध के चरणों में गिरकर अपनी अबोधता जाहिर करने लगा। जिस पर भगवान बुद्ध ने का कि तुम्हारी कोई गलती नहीं है तुम बेगुनाह हो। अब मेरे महाप्रयाण का समय समीप आ चुका है।

483 ईसा पूर्व बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध शरीर को त्याग कर स्थूल से सूक्ष्म जगत में दाखिल हो गए। उनके बाद उनके कार्य को उनके अनुयायियों ने अधिक रफ्तार से आगे बढ़ाया और पूरी दुनिया में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया।

गौतम बुद्ध पर 10 लाइन Best 10 Lines on Gautam buddha in Hindi

  • भगवान बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व कपिलवस्तु के नजदीक लुंबिनी वर्तमान नेपाल में हुआ था।
  • गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन था और माता का नाम महामाया था।
  • गौतम बुद्ध के जन्म के सात दिन के बाद उनकी माता महामाया का देहांत हो गया था।
  • भगवान बुध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था जिसका अर्थ होता है सिद्धियों वाला।
  • सिद्धार्थ का पालन पोषण उनकी माता की सगी बहन और राजा शुद्धोधन की दूसरी पत्नी गौतमी ने किया था।
  • गुरु विश्वामित्र से शिक्षा दीक्षा लेकर सिद्धार्थ शास्त्र, शस्त्र में पारंगत हो चुके थे।
  • 16 वर्ष की आयु में गौतम बुद्ध की शादी राजकुमारी यशोधरा से हुआ था।
  • गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम राहुल था।
  • 35 वर्ष की आयु में भगवान बुद्ध को गया वर्तमान बिहार में एक पीपल के वृक्ष के नीचे आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
  •  80 वर्ष की आयु में महात्मा बुद्ध ने अपना शरीर त्यागा था।

निष्कर्ष Conclusion

इस लेख में आपने गौतम बुद्ध पर निबंध हिंदी में (Essay on Gautam Buddha in Hindi)  पढ़ा। आशा है यह लेख आपको पसंद आया होगा। अगर यह निबंध आपको अच्छा लगा हो तो इसे शेयर जरूर करें।

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Essay on Gautam Buddha in Hindi – महात्मा बुद्ध पर निबंध

December 29, 2017 by essaykiduniya

Here you will get Paragraph and Short Essay on Gautam Buddha in Hindi Language for students of all Classes in 200, 400, 500 and 800 words. यहां आपको सभी कक्षाओं के छात्रों के लिए हिंदी भाषा में महात्मा बुद्ध पर निबंध मिलेगा।

Essay on Gautam Buddha in Hindi

Paragraph & Short Essay on Gautam Buddha in Hindi – महात्मा बुद्ध पर निबंध (200 words)

गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे जो कि संसार के प्रमुख धर्मों में से एक है। गौतम बुद्ध का दन्म 563 ई. पूर्व में हुआ था। उनको बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म कपिलवस्तु के शासक शुद्धोधन के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम महामाया था जो कि गौतम के जन्म के सात दिन बाद ही मर गई थी। गौतम का पालन पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने की थी। 16 वर्ष की अल्प आयु में ही सिद्धार्थ का विवाह कर दिया गया था और उन्हें एक पुत्र की प्राप्ती हुई थी।

संसार के सभी सुख होने के बाद भी उनके मन को शांति नहीं थी जिस कारण वह घर त्यागकर चले गए थे। उन्होंने ब्हार के गया नामक स्थान पर एक वृक्ष के नीचे बैठकर कठोर तपस्या कि और उन्हें सात दिन और सात रातों के बाद बैशाख पूर्णिमा के दिन सच्चे ग्यान की प्राप्ती हुई। तब से ही उनका नाम बुद्ध पड़ा था और उस वट वृक्ष को बोद्धि वृक्ष के नाम से जाना जाता है।उसके बाद से वह उपदेश देने लगे और उनके संदेश बहुत ही सरल थे। उन्होंने बताया था कि यह पूरी दुनिया दुखों से भरी हुई है और इन दुखों का कारण इच्छाएँ हैं। 483 ई. पूर्व महात्मा बुद्ध का निधन हो गया था।

Short Essay on Gautam Buddha in Hindi Language – महात्मा बुद्ध पर निबंध (400 Words)

महात्मा बुद्ध शान्ति के पुंज महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ई० पू० में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के राजा थे। माता जी का नाम माया देवी था। बचपन में इनका नाम सिद्धार्थ था। यह माता पिता के इकलौते पुत्र थे। इनका पालन-पोषण बड़े लाड प्यार से होने पर भी इनका दिल संसार में नहीं लगता था। यद्यापि सिद्धार्थ को विलास के सभी साधन प्राप्त थे तथापि इनका मन संसार में नहीं लगता था। चौदह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह यशोधरा से हो गया। एक साधु महात्मा ने सिद्धार्थ को देखकर यह भविष्यवाणी की थी।

यदि गौतमः राज्य-कार्य या सांसारिक कार्यों में लग गया तो चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा और यदि साधु हो गया तो बहुत बड़ा महात्मा बनेगा। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् सिद्धार्थ के घर पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम राहल रखा गया। बुढ़ापे, रोग और मुत्यु आदि के दृश्य देखकर आपने गृह त्यागने का निश्चय कर लिया। वे एक रात चुपके से अपनी पत्नी और पुत्र को सोता छोडकर घर से निकल गये। राजकीय वस्त्र उतार कर साधुओं का चोला पहन लिया और मक्ति पाने के लिए ज्ञान की खोज में निकल पड़े।

आप ने मुक्ति प्रप्ति के लिए व्रत और उपवास किए, यहां तक कि सारा शरीर सूख कर कांटा हो गया । ज्ञान की खोज में वर्षों भटकते रहे। अन्त में ज्ञान प्राप्त हो ही गया और आप सिद्धार्थ से बुद्ध बन गये।  आप की शिक्षा बड़ी सीधी-सादी थी। छूतछात को ये नहीं मानते थे। यही कारण है कि बहुत से लोग ब्राह्मणों की पूजा-विधि से तंग आकर बौद्ध धर्म में शामिल हो गये। आप को विश्वास हो गया कि व्रत और उपवास व्यर्थ के ढकोंसले हैं। उनसे मन की शन्ति नहीं मिल सकती| सत्य और अहिंसा ही मोक्ष के साधन हैं।

80 वर्ष की आयु में धर्म का प्रचार करते-करते गोरखपुर जिले में कुशीनगर के स्थान पर ये असार संसार को त्याग कर सदा के लिए चल दिए। बड़े-बड़े राजाओं और महाराजाओं ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। आपकी मृत्यु के पश्चात् यह कार्य चलता रहा । बौद्ध भिक्षुओं ने इस मत को दूर-दूर तक फैलाया। आज भी इस धर्म के अनुयायी हमें बड़े-बड़े देशों में मिलते हैं।

Essay on Gautam Buddha in Hindi Language – महात्मा बुद्ध पर निबंध (500 Words) 

महात्मा बुद्ध का जन्म ईसा से 623 वर्ष पूर्व हुआ था। शैशवकाल में आपका नाम सिद्धार्थ था। आपके पिता श्री शुद्धोदन शाक्य वंश के राजा थे। सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। आपका लालन-पालन मौसी ने किया। कहते हैं कि असित नामक किसी ऋषि ने सिद्धार्थ के भविष्य के विषय में पहले ही उनके पिता से कह दिया था कि यह बालक संसार से विरक्त रहेगा। | बचपन से ही सिद्धार्थ एकांतप्रेमी थी। आपकी एकांतप्रियता आपके पिता के लिए चिंता का विषय बन गई। उसे दूर करने के लिए पिता ने परमसुंदरी राजकुमारी यशोधरा के साथ उनका विवाह कर दिया; क्योंकि पिता शुद्धोदन और दूसरे अनुभवी 

पुरुषों की सम्मति में राजकुमार सिद्धार्थ को शीघ्रातिशीघ्र गृहस्थ-धर्म में दीक्षित कर देना वांछनीय था। तब भी सिद्धार्थ का मन गृहस्थाश्रम के वैभव से संतुष्ट न हो सका। चारों ओर दुख, निराशा, दौर्बल्य, रोग, शोक, परिताप और जगत के अन्य कष्टों को देखकर आप विचलित हो उठे। आपने प्रण किया कि संसार के आवागमन तथा कष्टों से मुक्ति पाने की राह खोजनी चाहिए। 28 वर्षीय सिद्धार्थ पुत्र राहुल और सुंदरी यशोधरा को अर्धरात्रि में सोता हुआ छोड़कर चिन्मय शांति की खोज में वन की ओर चल पड़े। मार्ग में सिद्धार्थ को अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़े। जप, तप, तीर्थ, व्रत सब करके देखा; किंतु न तो आपकी आत्मा को शांति मिली और न ही सांसारिक कष्टों से मुक्त होने का साधन।

एक दिन आप गया में बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे थे कि एकाएक आत्मज्ञान हुआ—देह को कष्ट देने तथा तपस्या करने से मुक्ति नहीं मिलेगी। अपितु सत्कर्म  और जीवमात्र पर दया करने से ही मुक्ति का मार्ग मिलेगा। उसी दिन से आपका नाम महात्मा बुद्ध हो गया। आप अपने पाँच शिष्यों को लेकर अपने विचारों का प्रचार करने के लिए निकल पड़े। आपके उपदेश इतने सरल, सुंदर और बोलचाल की भाषा में थे कि जिसने भी सुना वही बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। आपका कथन था कि अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। हर जीव पर दया करो, सच बोलो, सत्कार्य करो, अच्छे विचार रखो, समता का व्यवहार करो, अच्छा जीवनयापन करो, उच्च भावनाएँ रखो और अच्छे संकल्प करो।

आपके जीवनकाल में और मृत्यु के बाद भी बौद्ध धर्म दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया और लंका, चीन, जापान, सुमात्रा, जावा, मलाया आदि में महात्मा बुद्ध भगवान की तरह पूजे जाने लगे। आज भी विहारों से शांतिदायी स्तवन उठता है और दिशाओं को पूँजाता है|

बुद्धं शरणं गच्छामि | संघं शरणं गच्छामि ।

संघं शरणं गच्छामि । धम्मं शरणं गच्छामि।

Long Essay on Gautam Buddha in Hindi Language – महात्मा बुद्ध पर निबंध (800 Words)

गौतम बुद्ध दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक शिक्षकों में से हैं। उन्होंने सत्य, शांति, मानवता और समानता का संदेश दिया। उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की इसका अनुसरण चीन, जापान, भारत, बर्मा और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में किया जाता है। गौतम बुद्ध का जन्म नेपाल के तेराई क्षेत्र लुम्बिनी में 563 ईसा पूर्व में हुआ था। उनके पिता, सुधोदना कपिलवस्तु के शासक थे और शाक्य कबीले के प्रमुख थे।

उनकी मां महामाया थी। गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ एक बच्चा था, जिसमें मन की मनोचिकित्सक थी। उनके पिता हमेशा चिंतित थे कि उनका बेटा घर छोड़कर भ्रामक साधक बन सकता है क्योंकि ब्राह्मणों ने भविष्यवाणी की थी। इसलिए, उन्होंने एक सांसारिक जीवन के पक्ष में उसे प्रभावित करने के लिए हर परवाह की। उसने उसे विलासिता और आराम का जीवन दिया। सिद्धार्थ का विवाह 16 वर्ष की उम्र में एक सुंदर राजकुमारी, यशोधरा से हुआ था।

एक बेटा, राहुल, उनका जन्म हुआ। राजकुमार सिद्धार्थ के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया जब वह 29 साल का था। अपने सारथी के साथ-साथ चलकर, एक दिन, उसने एक बूढ़े आदमी को देखा, जो एक छिपी हुई छत के रूप में घूम रहा था उसने एक बीमार आदमी को देखा, पीड़ा और बहुत बीमार एक अन्य मौके पर, उसने एक मृत शरीर देखा इन सभी जगहों से उनके मन में गहरा असर हुआ। उन्होंने महसूस किया कि जीवन एक अनुकरण कवर था केवल वास्तविक तत्व अनुपलब्ध था और वह असली के लिए देखना चाहिए वह महल से चुपचाप से चले गए, शांति और सच्चाई की तलाश में अपनी पत्नी, शिशु बेटे, और सभी शाही आराम को छोड़कर। सिद्धार्थ ने कई स्थानों का दौरा किया, कई विद्वानों और संतों से मिले, लेकिन संतुष्ट नहीं थे। भटकन और ध्यान के छह साल बाद, 35 साल की उम्र में उन्हें बोध गया पर ज्ञान प्राप्त हुआ।

सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ या ‘प्रबुद्ध’ एक में बदल गया पिपल का पेड़ जिसके तहत उन्हें आत्मज्ञान मिला, उसे ‘बोधी वृक्ष’ के रूप में जाना जाने लगा। बुद्ध ने अपना पहला धर्मोपदेश टर्निंग ऑफ द व्हील ऑफ सरनाथ में दिया। समथ में अपने उपदेश के बाद, बुद्ध लगातार घूमते और पचास साल तक प्रचार करते रहे। मगध के अजात्त्तुर के शासनकाल के दौरान उनके अनुयायियों की उपस्थिति में शांतिपूर्वक निधन हो गया। बुद्ध की शिक्षा दुनिया के महान धर्मों में से एक का आधार बनती है, बौद्ध धर्म उनकी शिक्षाएं आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक के बजाय नैतिक थीं। उनकी पहली धर्मोपदेश, टर्निंग ऑफ द व्हील ऑफ लॉ, उनकी शिक्षाओं का केंद्र था संक्षेप में, यह चार नोबल सत्य को शामिल किया। बुद्ध ने सिखाया कि पीड़ा का मूल कारण इच्छा है बुद्ध के उपदेश का सार चार नोबल सत्यों पर आधारित है जो कि हैं :

(1) जीवन मौलिक निराशा और पीड़ा (दोहखा) है;

(2) दुख, सुख, शक्ति और निरंतर अस्तित्व (दोहरे-समूदा) के लिए इच्छाओं का परिणाम है;, (3) निराशा और दुःख को रोकने के लिए, किसी को दोहाचा-निरोड़ करना चाहिए;, (4) एक रास्ता है जो दुःख की समाप्ति की ओर जाता है (दोहरा-निरोध मार्ग)।.

इच्छा और दुख को रोकने का तरीका नोबल आइटफोल पाथ (अष्टांगिका मार्ग) का पालन करके है। एइटफ्ल्ड पाथ है: सही दृष्टिकोण, सही इरादा, सही भाषण, सही कार्रवाई, सही आजीविका, सही प्रयास, सही जागरूकता और सही एकाग्रता आठ चौगुले पथ में एक संतुलित और मध्यम जीवन था। बुद्ध ने उद्धार का मार्ग खोला, निर्वाण या पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति के रूप में परिभाषित किया, सभी के लिए, जन्म के बावजूद। जबकि कर्म का सिद्धांत बुद्ध की शिक्षाओं का हिस्सा था, उन्होंने जाति की व्याख्या करने और निर्वाण की गणना के लिए किसी भी व्यक्ति द्वारा वास्तविकता और नैतिक तैयारी की समझ के साथ प्राप्य के रूप में इसका उपयोग नहीं किया। बुद्ध ने अपने समय के कुछ धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं पर भी हमला किया।

उन्होंने जाति व्यवस्था के धार्मिक महत्व को पहचानने से इनकार कर दिया। बौद्ध धर्म एक गैर-ईश्वरीय धर्म था क्योंकि भगवान का नाम नहीं दिया गया था और यह एक पुजारी जाति के लिए कोई विशेषाधिकारित स्थिति नहीं दी थी। लेकिन उन्होंने आर्थिक कल्याण और नैतिक विकास के बीच संबंध को मान्यता दी बुद्ध के अनुसार, सजा के माध्यम से अपराध को दबाने की कोशिश करना व्यर्थ है बुद्ध महान बुद्धि और करुणा का आदमी था। उन्होंने अपने रास्ते ‘द मिडल पाथ’ को बुलाया और अपने अनुयायियों से कहा कि वे दोनों चरम सीमाओं से बचने के लिए, संवेदनाओं के आनंद और स्वमंकलन के प्रति लगाव के लिए।

उन्होंने अपनी जिंदगी बिताई, अपनी शिक्षाओं को फैलाया, धार्मिक सत्यों और विश्वासों को प्रेरित करता है, और उन्होंने बहुत सी सीखा और अच्छी अनुशासित अनुयायियों को उसके बाद काम जारी रखने के लिए प्रशिक्षण दिया। बुद्ध ने 483 ईसा पूर्व में कुशीनगर (यू.पी.) में निर्वाण प्राप्त किया था। शांति से विश्राम करने से पहले, उसने अपने प्रसिद्ध आख़िरी शब्दों से कहा: “तुम अपने आप को दीपक बनो। सच्चाई को दीपक के रूप में रखो, शरण के लिए न ढूंढें, किसी के पास किसी को भी।”

बौद्ध दर्शन बहुत विशाल और व्यापक है अगले हजार वर्षों के प्रमुख व्यापार मार्गों के साथ-साथ बौद्ध धर्म पहले, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में और उसके बाद, सीलोन (अब श्रीलंका) और दक्षिण-पूर्व एशिया में, उत्तर में मध्य एशिया और चीन तक और आगे, पूर्व में। इसे कई राजाओं की सुरक्षा और संरक्षण प्राप्त हुआ और तेजी से विकास हुआ।

हम आशा करते हैं कि आप इस निबंध (  Essay on Gautam Buddha in Hindi – महात्मा बुद्ध पर निबंध ) को पसंद करेंगे।

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Essay on Lord Buddha and Gautam in Hindi and His Full Life Story and Biography in Hindi

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Essay on Lord Buddha and Gautam in Hindi: भगवान बुद्ध का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी वन (आधुनिक रूमिंदाई अथवा रूमिंदेह नामक स्थान) में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शक्यागन के प्रधान थे। उनके माता का नाम मायादेवी था, जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी। गौतम बुद्ध के बचपन का नाम “सिद्धार्थ” था।

Table of Contents

History Of Gautam Buddha

गौतम बुध का जन्म 563 ईसा पूर्व शाख्य कुल में हुआ था।  इनके पिता लुंबिनी राज्य, नेपाल के राजा थे जिनका नाम शुद्धोधन था। इनका बचपन में रहन-सहन काफी सानो शौकत में हुआ।  लेकिन जब इन्हें संसार से मोह माया तोड़ने का मन किया तब यह बोधगया जाकर के बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त किए।  यहीं से उन्हें ज्ञान प्राप्ति हुई और फिर वह सिद्धार्थ से महात्मा बुध बन गए।  भारतवर्ष का शासक सम्राट अशोक इनके बड़े उपासक थें। 

बाद में मानव कल्याण के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार करना शुरू किया जो मौर्य काल में चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, वर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में जाकर फैल गया।

इसके बाद महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान में यह कहा कि करुणा शील और मैत्री होना जीवन में अनिवार्य है। इसके साथ ही समाज में कई तरह के भेदभाव को मिटाने के लिए गौतम बुद्ध ने कई प्रयास भी किये। उन्होंने यह कहा कि मनुष्य का मूल्यांकन उनके कर्म पर होना चाहिए ना कि जन्म के आधार पर।

आज गौतम बुद्ध ‘भगवान बुद्ध’ के रूप में पूजें जाते हैं। उन्होंने करोड़ों लोगों को जीवन जीने का सही मार्ग दिखलाया है।

Full Life Story Of Gautam Buddha in Hindi

गौतम बुद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। इनका जन्म 483 ईसापूर्व तथा महापरिनिर्वाण 563 ईसा पूर्व में हुआ था। बचपन में गौतम बुद्ध को “राजकुमार सिद्धार्थ” के नाम से जाना जाता था।

गौतम बुध का जन्म हर किसी के लिए प्रेरणादाई है। गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक हैं। गौतम बुध को 35 वर्ष की उम्र में ही ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी। वह संसार की मोह माया को त्यागकर तपस्वी बन गए और परम ज्ञान की खोज में निकल गए। 

Know the Journey from Siddhartha of Mahatma Buddha to becoming Gautama Buddha

सिद्धार्थ, जिनका नाम अब बुद्ध हो गया है। उन्होंने अपने जीवन में बहुत ही कठिनाइयों का सामना किया है। उनकी किस्मत इतनी खराब थी कि उनके जन्म के केवल 7 दिन के बाद ही उनके माता का देहांत हो गया था। 

जिसके कारण उनका पालन पोषण उनकी मौसी ने किया था, जिनका नाम गौतमी था। उसी समय शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया था। उनका पिता का नाम सद्दोधन था, जो कि शाक्य वंश के राजा थे। 

सिद्धार्थ के जन्म से पहले ही एक ऋषि मुनि ने उनके पिता के सामने भविष्यवाणी की थी। उन्होंने कहा यह जो बालक जन्म लेगा वो एक महान ऋषि बनेगा । यह सुनते ही सद्धोधन बहुत ही बेचैन हो गए । वह नहीं चाहते थे कि मैं एक राज वंश का राजा हूं और मेरा पुत्र किसी प्रकार का ऋषि बने और उनके पिता उसी समय निश्चय कर लिए थे कि मै अपने पुत्र को तपस्वी या फिर ऋषि नहीं बनने दूंगा और उन्हें तपस्वी बनने से रोकने के लिए राजमहल के परिधि में ही रखने का फैसला किया था। 

गौतम राजसी विलासिता में पले बढ़े, नृत्य करने वाली लड़कियों द्वारा मनोरंजन, बाहरी दुनिया से आक्रांत, ब्राह्मणों द्वारा निर्देशन, तीरनदाजी, तलवारबाजी,कुश्ती ,तैरकिय दौर में प्रशिक्षित किए गए थे। कम उम्र में ही उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से करवा दिया गया था। दोनों का एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल था।

बुद्ध के कई प्रयास के बाद भी वह 21 वर्ष की आयु में उनके अपने ही राज्य कपिलवस्तु की गलियों में उनकी दृष्टि चारो दृश्य कि ओर पड़ी, तो वो देखे की बड़े – बुजुर्ग सभी को अंत में अपने प्राण त्यागने ही पड़ते हैं और जीवन में जो भी है वह सब मोह माया है। इसलिए उन्होंने अपने जीवन साधारण मनुष्य के तरह व्यतीत करना छोड़कर ऋषि बनने के रास्ते में निकल गए।

H ow Did Gautama Buddha Die

कथाओं के अनुसार भगवान बुद्ध(Essay on Lord Buddha and Gautam in Hindi) की मृत्यु एक व्यक्ति द्वारा परोसे गए विषाक्त भोजन के द्वारा हुआ था। भगवान बुद्ध ने एक व्यक्ति का भोजन करने का अनुग्रह स्वीकार कर लिया। उस व्यक्ति के द्वारा जो, भोजन को परोसा गया था,वह विषक हो चुका था किंतु भगवान बुद्ध उस व्यक्ति के प्रेम का निरादर नहीं करना चाहते थे अतः उन्होने उस भोजन को ग्रहण कर लिया। इसके बाद लगातार भगवान बुद्ध की तबीयत खराब होती चली गई। इसके बाद अंतिम की मृत्यु हो गई।

शारीरिक मृत्यु का कारण विषैला भोजन तो था लेकिन किसी के भी मृत्यू का कोई ना कोई कारण बनता ही है। वास्तव में वह बात महत्वपूर्ण नहीं है, सर्वाधिक सार की बात यह है कि भगवान बुद्ध ने अपने स्वास्त स्वरूप को जानते हुए विदा हुए हैं। इसलिए उनकी मृत्यु एक साधारण घटना नहीं अपितु महापरिनिर्वाण हो गई हैं। उन्होंने कहा कि मैं सदा के लिए मुक्ति को उपलब्ध हुआ है।

How Did Gautama Buddha Attain Enlightenment

महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया और बौद्ध धर्म की स्थापना की। भगवान बुद्ध ने चार आर्य सत्यो का उपदेश दिया। वैशाखी पूर्णिमा के दिन बौद्ध गया में उन्हें बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई, तभी से यह पूर्णिमा का दिन “बुद्ध पूर्णिमा” के रूप में जाना जाता है।

सिद्धार्थ के मन में बहुत सारे प्रश्न थे। सिद्धार्थ अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढना शुरू किए । सारा ध्यान अपने उन प्रश्नों को लगा देने के बाद भी उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल पाया। जब उन्हें उत्तर नहीं मिले तो उन्होंने तपस्या भी की, फिर भी उन्हें प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। उसके बाद कुछ और साथियों के साथ कठिन तपस्या प्रारंभ की। ऐसे करते हुए 6 वर्ष व्यतीत हो गए थे। 

भूख और प्यास से व्याकुल होकर मृत्यु के समीप पहुंच कर बिना प्रश्नो का उत्तर पाए वह कुछ ओर करने का विचार करने लगे। एक गांव में भोजन की तलाश में निकल गए, फिर वहां भोजन ग्रहण किया। इसके बाद वह कठोर तपस्या छोड़कर एक पीपल के पेड़ (जो अब बोद्धी वृक्ष के नाम से जाना जाता है) के नीचे  प्रतिज्ञा करके बैठ गए कि वह सत्य जाने बिना उठेंगे ही नहीं। वह सारी रात बैठे रहे और माना जाता है कि वह यही छन  था, जब सुबह के समय उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उनकी अविजया नष्ट हो गए और उन्हें निर्वन यानी बोधि की  प्राप्ति हुई। वह 35 वर्ष के आयु में ही बुद्ध बन गए।

बुद्ध को शक्यमुनी के रूप में भी जाना जाता है। 7 हफ्ते तक उन्होंने मुक्ती की स्वतंत्रता और शांति का आनन्द लिया। प्रारम्भ में तो वो अपने बोद्धि के बारे में दूसरों को ज्ञान नहीं देना चाहते थे। बुद्ध का मानना है कि अधिकांश लोगों को समझना बहुत मुश्किल होगा। माना जाता है कि ब्रम्हा जी ने स्वयं बुद्ध को अपने ज्ञान को सभी लोगो के बीच पहुंचाने का आग्रह किया है, फिर वह इस पर सहमत हो गए। इस तरह उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश उत्तर प्रदेश के वाराणस के पास सारनाथ में अपने मित्रो को दिया।

Biography Of S iddharth Goutam

महान समाज सुधारक दार्शनिक और धर्म गुरु भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी

पूरी दुनिया को अपने विचारों से नया रास्ता दिखाने वाले भगवान गौतम बुद्ध(Essay on Lord Buddha and Gautam in Hindi) भारत के महान दार्शनिक, वैज्ञानिक, धर्मगुरु एक महान समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। बुद्ध की शादी यशोधरा के साथ हुई उनके इस शादी से एक लड़का हुआ, जिसका नाम राहुल था । लेकिन वह अपने पत्नी और अपने बेटे को त्याग कर घर से चले गए।

बुद्ध संसार को जन्म, मरन और दुखो से  मुक्ति दिलाने एवं सत्य दिव्य ज्ञान की खोज में रात के समय राजमहल से जंगल की ओर चले गए थे। बहुत सालों के बाद बौद्ध गया में बौद्ध वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वो ऐसे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए।

आज पूरे विश्व में लगभग 190 करोड़  बौद्ध धर्म के अनुयाई हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायियों की संख्या विश्व में 25% है। सर्वे के अनुसार यहां भूटान, चीन, साउथ एशिया, मंगोलिया, थाईलैंड, भारत, हैंगकांग, मलेशिया, सिंगापुर, अमेरिका, नेपाल, इंडोनेशिया, कंबोडिया और श्रीलंका आदि देश आते हैं। जिसमें से भारत,भूटान और श्रीलंका में बौद्ध धर्म के अनुयाई की संख्या ज्यादा है।

Buddha and His Teaching in All Topics

गौतम बुद्ध को भगवान बुद्ध एवं आदि नामों से जाना जाता है। वे विश्व प्रसिद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। हमने आपको तो यह पहले ही बता दिया हैं कि गौतम बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ वेद और उपनिषद की शिक्षा की प्राप्ति गुरु विश्वामित्र से की थी, तथा राजकाज और युद्धविद्या की भी सीक्षा ग्रहण की। 

सिद्धार्थ बचपन से ही बड़े ही कोमल हृदय के थे। वो किसी का भी दुख देखकर सहन नहीं कर पाते थे। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बनने से पहले एक राजा बने थे। बहुत छोटी उम्र से ही सिद्धार्थ अपने मन में बहुत सारे प्रश्न लिए घूमते थे। इनका प्रश्न इतना कठिन होता था, जिनका जवाब महान ऋषि और महात्मा के पास भी नहीं होता था। बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति बहुत कम उम्र में तो हो ही गया था और जब उन्हें अपने किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिल पा रहा था तो वह विवाह के बाद ही अपने परिवार को छोड़ कर स्त्य की तलाश में स्वयं निकल पड़े थे। गौतम के उपदेश आज भी लोगों को मार्गदर्शक कर रहे हैं।

Character of Prince Siddhartha

वैशाख पूर्णिमा के दिन बौद्ध धर्म वालों के लिए विशेष महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि आज के ही दिन लगभग 365 ईसवी पूर्व बौद्ध धर्म(Essay on Lord Buddha and Gautam in Hindi) के संस्थापक भगवान बुध का जन्म कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के यहां लुंबनी वन में हुआ था। भगवान बुद्ध को विष्णु भगवान का नवा अवतार कहा जाता है। जब इनके जन्म के पहले ही एक ऋषि ने भविष्यवाणी की कि यह बालक बहुत छोटे में ही तपस्वी बन जाएगा तो फिर चिंतित होकर उनके पिता शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को महल से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी और16 वर्ष के उम्र ही उनका विवाह करा दिया गया।

सिद्धार्थ बचपन से ही बड़ा ही गंभीर स्वभाव रखने वाले व्यक्ति थे। वह अपने जीवन के सभी समय अकेले ही व्यतीत करना पसंद करते थे। एक दिन जब वो भ्रमण पर निकले थे, तो उन्होंने एक वृद्ध को चलते हुए देखा जिसकी कमर झुकी हुई थी। वह खासते हुए लाठी के सहारे अपना एक एक कदम बढ़ा रहा था। जब वो  थोड़े से आगे और बढ़े तो उन्होंने एक मरीज को कष्ट से करहाते हुए देखा, तो इन सभी को देखकर उनके मने बड़ा ही दया वाली भावना आ गई ओर उसके बाद उनकी नजर एक मृतक कि अर्थी की और पड़ी, जिसके पीछे उनके परिजन विलाप करते हुए जा रहे थे।

यह सभी दृश्य देखकर उनका मन क्षोभ ओर वितृष्णा से भर उठा, तभी उन्होंने एक सन्यासी को देखा संसार के सभी बन्धन से मुक्त भ्रमण कर रहे हैं। इन सभी दृश्य को देखने के बाद सिद्धार्थ के मन को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया था। तभी उन्होंने सन्यासी बनने का निश्चय कर लिया और 19 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ घर त्याग कर इस क्षणिक संसार से विदा लेकर सत्य की खोज में निकलना पसंद किए।

Buddha’s Conception And Birth 

एशिया के ज्योतिपुंज कहा जाता है। इन्हें ईसाई और इस्लाम धर्म के बाद बौद्ध धर्म को विश्व का तीसरा धर्म माना जाता है।7 इसके प्रस्थापक महात्मा शाक्य मुनि (गौतम बुद्ध) है। बौद्ध धर्म भारत के भ्रमण परंपरा से निकला धर्म और दर्शन है। ईसाई और इस्लाम धर्म से पूर्व ही बौद्ध धर्म का उत्पत्ति हुई थी। अलारकलाम सिद्धार्थ के प्रथम गुरु थे। उरुवेला में सिद्धार्थ को पांच साधक मिले, कोऊंदनिया, बप्पा,भादवि, महानामा और अश्सागी।

कई ज्योतिषी और वेदों के सिद्धांत द्वारा बाद में पता चलता है कि गौतम बुध(Essay on Lord Buddha and Gautam in Hindi) भगवान विष्णु के नौवे अवतार हैं। आज भारत और पूरी दुनिया में गौतम बुध के आदर्शों और मानव कल्याण के लिए किए गए कार्यों का बौद्ध धर्म के लोग पूरे संसार में रहते हैं और आज भी कई गुरु जन जो बौद्ध धर्म का पालन करते हैं। वे सभी समाज कल्याण के लिए गौतम बुध के आदर्शों पर कार्य कर रहे हैं ।

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गौतम बुद्ध पर निबंध | Essay on Gautama Buddha

Essay Contents:

  • बौद्धधर्म की देन (Contribution of Buddhism)

Essay # 1. गौतम बुद्ध का प्रारम्भिक जीवन (Gautama Buddha’s Early Life):

ADVERTISEMENTS:

ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के नास्तिक सम्प्रदाय के आचार्यों में महात्मा गौतम बुद्ध का नाम सर्वप्रमुख है । उन्होंने जिस धर्म का प्रवर्त्तन किया वह कालान्तर में एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म मन गया । ‘विश्व के ऊपर उनके मरणोत्तर प्रभावी के आधार पर भी उनका मूल्यांकन किया जाये तो वे भारत में जम लेने वाले महानतम व्यक्ति थे ।’

गौतम बुद्ध का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुम्बिनी वन (आधुनिक रुमिन्देई अथवा रुमिन्देह नामक स्वान) में हुआ था । उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के प्रधान थे । उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी । गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था ।

उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहान्त हो गया तथा उनका पालन-पोषण विमाता प्रजापति गौतमी ने किया । उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ । उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी । परन्तु बचपन से ही वे अत्यधिक चिन्तनशील स्वभाव के थे ।

प्रायः एकान्त स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण, सुख-दुख आदि समस्याओं के ऊपर गम्भीरतापूर्वक विचार किया करते थे । उन्हें इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देखे उनके पिता को गहरी चिन्ता हुई । इन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फँसाने को भरपूर कोशिश की । विलासिता की सामग्रियाँ उन्हें प्रदान की गयीं ।

इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यन्त रूपवती कन्या के साथ कर किया । इस कन्या का नाम उत्तरकालीन बौद्ध अन्यों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है । कालान्तर में उसका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ । यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम ‘राहुल’ पड़ा ।

तीनों ऋतुओं में आराम के लिये अलग-अलग आवास बनवाये गये तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गयी कि वे सांसारिक दुखों के दर्शन न कर सकें । परन्तु सिद्धार्थ सांसारिक विषयभोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके । विहार के लिये जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार एक व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अन्ततः एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा ।

उनका हृदय मानवता को दुख में फँसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा । बुढ़ापा, व्याधि तथा मृत्यु जैसी गम्भीर सांसारिक समस्याओं ने उनके जीवन का मार्ग बदल दिया और इन समस्याओं के ठोस हल के लिये उन्होंने अपनी पत्नी एवं पुत्र को सोते हुए छोड़कर गृह त्याग दिया । उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष की थी । इस त्याग को वौद्ध ग्रन्थों में ‘महाभिनिष्क्रमण’ की संज्ञा दी गयी है ।

इसके पश्चात् ज्ञान की खोज में वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगे । सर्वप्रथम वैशाली के समीप अलारकालाम नामक संन्यासी के आश्रम में उन्होंने तपस्या की । वह सांख्य दर्शन का आचार्य था तथा अपनी साधना-शक्ति के लिये विख्यात था । परन्तु यहाँ उन्हें शान्ति नहीं मिली ।

यहीं उन्हें वे रुद्रकरामपुत्त नामक एक दूसरे धर्माचार्य के समीप पहुँचे जो राजगृह के समीप आश्रम थे निवास करता था । यहां भी उनके अशान्त मन को संतोष नहीं मिल सका । खिन्न हो उन्होंने उनका भी साथ छोड़ दिया तथा उरुवेला (बोधगया) नामक स्थान को प्रस्थान किया । यहाँ उनके साथ पाँच बाह्मण संन्यासी भी आये थे । अब उन्होंने अकेले तपस्या करने का निश्चय किया ।

प्रारम्भ में उन्होंने कठोर तपस्या किया जिससे उनका शरीर जर्जर हो गया और कायाक्लेश की निस्सारता का उन्हें भास हुआ । तब उन्होंने एक ऐसी साधना प्रारम्भ की जिसकी पद्धति पहले की अपेक्षा कुछ सरल थी । इस पर उनका अपने साथियों से मतभेद हो गया तथा वे उनका साथ छोड़कर सारनाथ में चले गये ।

सिद्धार्थ अन्न-जल भी ग्रहण करने लगे । छः वर्षों की साधना के पश्चात् 35 वर्ष की आयु ने वैशाख पूर्णिमा की रात को एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ‘ज्ञान’ प्राप्त हुआ । अब उन्होंने दुख तथा उसके कारणों का पता लगा लिया । इस समय से वे ‘बुद्ध’ नाम से विख्यात हुए ।

Essay # 2. गौतम बुद्ध के उपदेश तथा शिक्षायें (Gautama Buddha’s Advice and Teachings):

ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् गौतम बुद्ध ने अपने मत के प्रचार का निश्चय किया । उरुवेला से वे सर्वप्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) आये । यहाँ उन्होंने पांच ब्राह्यण संन्यासियों को अपना पहला उपदेश दिया । ये संन्यासी कठोर साधना से विरत हो जाने के कारण पहले उनका साथ छोड़ चुके थे ।

इस प्रथम उपदेश को ‘धर्मचक्रप्रवर्त्तन’ (धम्मचक्कापवत्तन) की अता दी जाती है । यह उपदेश दुःख, दुख के कारणों तथा उनके समाधान से सम्बन्धित था । इसे ‘चार आर्य सत्य’ (चतारि आरिय सच्चानि) कहा जाता है ।

‘प्रतीत्यसमुत्पाद’:

संबोधि में गौतम बुद्ध को प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त का बोध हुआ था । प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है ‘संसार की सभी वस्तुएँ किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई हैं और इस प्रकार वे इस पर निर्भर हैं’ । इस कार्य-कारण सिद्धान्त को उन्होंने सम्पूर्ण जगत् पर लागू किया ।

सम्पूर्ण उन्होंने जिन चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया वे इस प्रकार है :

संसार में सर्वत्र दुख ही दुख है । जीवन दुखों तथा कष्टों से परिपूर्ण है । जिन्हें हम सुख समझते है वे भी दुखों से भरे हुए है । सदा यह भय बना रहता है कि हमारे आनन्द कहीं समाप्त न हो जायँ । आनन्दों की समाप्ति पर कष्ट होता है । आसक्ति से भी दुख उत्पन्न होते है । संसार में नाना प्रकार के दुख व्याप्त है । जैसे-दरिद्रता, व्याधि, जरा, मृत्यु आदि । अतः कह सकते हैं कि जीवन दुखों से परिपूर्ण है ।

(2) दुःख समुदय:

प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है । अतः दुख का भी कारण है क्योंकि कोई भी वस्तु बिना किसी कारण के नहीं हो सकती । प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि दुख का मूल कारण अविद्या (अज्ञान) है । संसार के समस्त दुखों का सामूहिक नाम है- ‘जरामरण’ । जरा-मरण से लेकर अविद्या तक दुख-समुदय में 12 कड़ियाँ बताई गयी हैं ।

(3) दुःख निरोध:

दुख का अन्त सम्भव है । चूँकि प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न होती है, अतः यदि उस कारण का विनाश हो जाये तो वस्तु का भी विनाश हो जायेगा । कारण समाप्त होने पर कार्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जावेगा । अतः यदि दुखों के कारण अविद्या का विनाश कर दिया जाये तो दुःख भी नष्ट हो जावेंगे ।

दुख-निरोध को ही ‘निर्वाण’ कहा जाता है । यही जीवन का चरम लक्ष्य है । इसकी प्राप्ति जीवन-काल में भी सम्भव है । निर्वाण का अर्थ जीवन का विनाश न होकर उसके दुखों का विनाश है । इसकी प्राप्ति से पुर्नजन्म रुक जाता है तथा दुखों का भी अन्त हो जाता है । बुद्ध ने इस अवस्था को वर्णनातीत बताया है ।

(4) दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा:

दुख के मूल अविद्या के विनाश का उपाय अष्टांगिक मार्ग हैं ।

अष्टांगिक मार्ग :

आधुनिक खोजों से यह स्पष्ट हो गया है कि गौतम बुद्ध ने शील, समाधि एवं प्रज्ञा को ही दुख-निरोध का साधन बताया था । प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में इन्हीं का उल्लेख मिलता है । शील का अर्थ सम्यक् आचरण, समाधि का अर्थ सम्यक् ध्यान तथा प्रजा का अर्थ सम्यक् ज्ञान से है । शील तथा समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है जो सांसारिक दुखों से मुक्ति पाने का मूल साधन है ।

कालान्तर में इसके आठ साधन स्वीकार कर लिये गये तथा इसे ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया । ये साधन हैं:

(i) सम्यक् दृष्टि – वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ध्यान करना सम्यक् दृष्टि है ।

(ii) सम्यक् संकल्स – आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना सम्यक् संकल्प है ।

(iii) सम्यक् वाक – अप्रिय वचनों के सर्वथा परित्याग को सम्यक् वाक् कहा जाता है ।

(iv) सम्यक् कर्मान्त – पशान, दया, सत्य, अहिंसा आदि सत्कर्मों का अनुसरण ही सम्यक् कर्मान्त है ।

(v) सम्यक् आजीव – सदाचार के नियमों के अनुकूल आजीविका के अनुसरण करने को सम्यक आजीव कहते हैं ।

(vi) सम्यक् व्यायाम – नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिये सतत् प्रयत्न करते रहना सम्यक् व्यायाम है ।

(vii) सम्यक् स्मृति – अपने विषय में सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का त्याग कर सच्ची धारणा रखना ही सम्यक् स्मृति है ।

(viii) सम्यक् समाधि – मन अथवा चित्त की एकाग्रता को सम्यक् समाधि कहते हैं ।

उपर्युक्त अष्टांगिक मार्ग में शील के अन्तर्गत सम्यक कर्मान्त तथा अजीव, समाधि के अन्तर्गत सम्यक् व्यायाम, स्मृत तथा समाधि और प्रज्ञा के अन्तर्गत सम्यक् दृष्टि, संकल्प तथा वाक् को रखा जा सकता है ।

प्रतीत्यसमुत्पाद ही बुद्ध के उपदेशों का सार है तथा बुद्ध की समस्त शिक्षाओं का आरम्भ-स्तम्भ है । यह द्वितीय तथा तृतीय आर्य सत्यों में निहित है जो दुख का कारण तथा उसके निरोध को बताते हैं । दुख संसार है तथा दुख निरोध निर्वाण है । दोनों एक ही सत्ता के पहलू हैं ।

सापेक्षवादी दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत्यसमुत्पाद संसार है तथा वास्तविकता की दृष्टि से विचार करने पर यही निर्वाण है । प्रतीत्यसमुत्पाद बताता है कि भौतिक जगत में सब कुछ सापेक्ष्य, परनिर्भर तथा जरामरण के अधीन होने के कारण अनित्य है । संसार की प्रत्येक वस्तु सापेक्ष्य होने के कारण न तो पूर्ण रूप से सत्य है और न ही पूर्ण असत्य है ।

पूर्ण सत्य इसलिये नहीं है कि यह जरामरण के अधीन है और पूर्ण असत्य इसलिये नहीं है कि इसका अस्तित्व दिखाई देता है । इस प्रकार सभी दृश्यमान वस्तुयें वास्तविकता तथा शून्यता के बीच में स्थित हैं । इस प्रकार बुद्ध अपने मत को मध्यम-मार्ग (मध्यमा-प्रतिपद्) कहते हैं । यह दोनों अतिवादी विचारधाराओ- शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद-का निषेध करता है ।

बुद्ध का मध्यम-मार्ग अरस्तु के स्वर्णिम मार्ग के समान है । उन्होंने अतिशय आसक्ति तथा कायाक्लेश दोनों का विरोध किया । अपने प्रथम उपदेश में उन्होंने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा था- ”संसार में दो अतियां हैं । इनसे धार्मिक व्यक्ति को बचना चाहिये । प्रथम सुख में पूरी तरह लिप्त होना है । यह निम्न, अयोग्य, अपवित्र, अनैतिक, अवास्तविक है । द्वितीय कायाक्लेश का जीवन है । यह भी अन्धकारपूर्ण, अयोग्य तथा मिथ्या है । तथागत ने इन दोनों से परे होकर मध्यम मार्ग की खोज की है जो नेत्र तथा मस्तिष्क को प्रकाशित करता है तथा शान्ति, ज्ञान, सम्बोधि, निर्वाण की ओर ले जाता है ।”

बुद्ध स्वय प्रतीत्य समुत्पाद को अत्यधिक महत्व देते हैं तथा इसका तादात्म्य ‘धम्म’ के साथ स्थापित करते हुये कहते है- ”जो प्रतीत्य समुत्पाद को समझता है वह धम्म को समझता है तथा जो धम्म को समझता है वह प्रतीत्य को समझता है ।” बुद्ध के उपदेश अत्यन्त व्यावहारिक तथा सरल होते थे ।

ब्राह्मण ग्रन्थों द्वारा प्रतिपादित वेदों की अपौरुषेयता एवं आत्मा की अमरता के सिद्धान्त को उन्होंने स्वीकार नहीं किया । किन्तु आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करने पर भी वे पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धान्त को मानते थे । उनके अनुसार जीवन विभिन्न अवस्थाओं की सन्तति है जो एक दूसरे पर निर्भर करती है । किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है । इसी प्रकार वर्तमान अवस्था परवर्ती अवस्था को जन्म देती है ।

इस प्रकार रिजडेविड्स के अनुसार- ‘यह चरित्र है जिसका पुनर्जन्म होता है, किसी आत्मा का नहीं । एक व्यक्ति के मरने पर उसका चरित्र बना रहता है तथा अपनी शक्ति से एक अन्य व्यक्ति को उत्पन्न कर देता है । यह भिन्न आकार का होते हुये भी पूर्णतया उससे प्रभावित रहता है । यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कि व्यक्ति की भवतृष्णा पूर्णतया समाप्त नहीं हो जाती ।’

यज्ञीय कर्मकाण्डों तथा पशु वलि जैसी कुप्रथाओं का बुद्ध ने जमकर विरोध किया । वैदिक अनुष्ठानों, कर्मकाण्डों, पशुबलि आदि का भी उन्होंने विरोध किया । वे मानव जाति की समानता के अनन्य पोषक थे । उनका कहना था कि मनुष्य- मनुष्य में भेद जन्म के आधार पर नहीं, अपितु गुण, बुद्धि तथा कर्म के आधार पर होता है ।

अतः, उन्होंने ब्राह्मणों की जन्मना श्रेष्ठता के दावे का खण्डन किया । जाति-पांति, छुआ-छूत जैसा कोई भेद-भाव उनकी दृष्टि में नहीं था और यही कारण था कि उन्होंने अपने संघ का द्वार सभी जाति के लिये खोल दिया था । एक सच्चे समाज सुधारक के रूप में वे अपने समकालीन समाज को जाति तथा धर्म के दोषों से मुक्त करना चाहते थे । बुद्ध जटिल दार्शनिक समस्याओं में कभी नहीं उलझे तथा एक नैतिक दार्शनिक के रूप में उन्होंने मनुष्य के नैतिक तथा सामाजिक गुणों के विकास पर ही बल दिया ।

उनकी धार्मिक दृष्टि बड़ी उदार थी । उनकी दृष्टि में शान तथा नैतिकता दोनों ही महत्वपूर्ण थे किन्तु गान को नैतिकता के ऊपर रखने के लिये वे कदापि प्रस्तुत नहीं थे । ज्ञान की अपेक्षा शील (नैतिकता) को उन्होंने अधिक महत्वपूर्ण बताया क्योंकि यही ज्ञान की प्राप्ति का माध्यम है ।

उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रचलित अनेक मान्यताओं तथा अंधविश्वासों जैसे-नदियों के जल की पवित्रता, शकुन, भविष्यवाणियों, स्वप्न-विचार, जादूगरी चमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों आदि की निंदा करते हुये उन्हें त्याज्य बताया ।

काया-क्लेश, घोर तपस्या, संसार-त्याग के भी वे पक्ष में नहीं थे, किन्तु अपने कुछ उत्साही अनुयायियों को उन्होंने संसार त्याग कर भिक्षु जीवन व्यतीत करने को प्रोत्साहित किया क्योंकि सांसारिक सुखों को वे निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में बाधक समझते थे ।

सामान्य मनुष्यों के लिये बुद्ध ने जिस धर्म का उपदेश दिया वह भिक्षु धर्म से भिन्न था और उसे उपासक धर्म कहा जाता है । दीघनिकाय के सिगालोवाद सुत में इस धर्म का विवरण प्राप्त होता है । बुद्धघोष ने इसे ‘गिहिविननय’ अर्थात् ‘गृहस्थों के लिये आचरण’ की सता प्रदान की है ।

इसमें इस धर्म के प्रमुख लक्षण अहिंसा, प्राणियों पर दया, सत्य, भाषण, माता-पिता की सेवा, गुरुजनों का सम्मान, ब्राह्मणों तथा श्रमणों को दान, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों आदि के साथ अच्छा बर्ताव करना इत्यादि बताये गये हैं । ये बातें सभी धर्मों में समान रूप से श्रद्धेय मानी जाती हैं ।

बुद्ध के उपदेशों का लक्ष्य मानव जाति को उसके दुःखों से त्राण दिलाना था और इस रूप में उनका नाम मानवता के महान् पुजारियों में सदैव अग्रणी रहेगा । उनके उपदेशों में आद्योपान्त सरलता एवं व्यावहारिकता दिखायी देती है ।

Essay # 3. बौद्ध धर्म का प्रचार (Promotion of Buddhism):

बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया जहाँ पाँच ब्राह्मण उनके प्रथम शिष्य बने । इसके बाद उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया । वर्षा ऋतु में वे विभिन्न नगरों में विश्राम करते तथा शेष ऋतुओं में एक स्थान से दूसरे स्थान में घूम-घूम कर अपने मत का प्रचार करते थे । बौद्ध साहित्य में उनके प्रचार कार्य का बड़ा ही रोचक विवरण प्राप्त होता है ।

सारनाथ से अपने ब्राह्मण अनुयायियों के साथ बुद्ध वाराणसी गये जहाँ यस नामक एक धनी श्रेष्ठिपुत्र को उन्होंने अपना शिष्य बनाया । यहाँ से मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे । राजगृह में उन्होंने द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्षाकाल व्यतीत किया । विम्बिसार, जो इस समय मगध का राजा था, ने उनके निवास के लिये ‘वेलुवन’ नामक विहार बनवाया ।

मगध में इस समय अनेक प्रसिद्ध बाह्मण तथा ब्राह्मणेतर आचार्य एवं संन्यासी निवास करते थे । कई के साथ बुद्ध का शास्त्रार्थ हुआ तथा बुद्ध ने सभी को परास्त किया । फलस्वरूप अनेक विद्वान् उनके शिष्य बन गये । इनमें सारिपुत्र, मौद्‌गल्यायन उपालि, अभय आदि प्रमुख हैं ।

बुद्ध ने गया, नालन्दा, पाटलिपुत्र आदि की भी यात्रा की तथा अनेक लोगों को अपना शिष्य बनाया । राजगृह में ही रहते हुए उन्होंने एक बार अपने गृह नगर कपिल- वस्तु की भी यात्रा की जहां अपने परिवार के सभी लोगों को उन्होंने अपने मत में दीक्षित किया । शाक्यों ने उनसे अपने नवनिर्मित संस्थागार का उद्‌घाटन करवाया था ।

राजगृह से चलकर बुद्ध लिच्छवियों की राजधानी वैशाली पहुँचे । यहाँ उन्होंने पाँचवाँ वर्षा काल बिताया । लिच्छवियों ने उनके निवास के लिये महावन में प्रसिद्ध कूटाग्रशाला का निर्माण करवाया । वैशाली की प्रसिद्ध नगर-वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा उसने भिक्षु-संघ के निवास के लिये अपनी आम्रवाटिका प्रदान कर दिया ।

इसी स्थान पर बुद्ध ने प्रथम बार महिलाओं को भी अपने सध में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की तथा भिक्षुणियों का संघ स्थापित हुआ । संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला बुद्ध की सौतेली माता प्रजापती गौतमी थी जो राजा शुद्धोधन की मत्यु के बाद कपिलवस्तु से चलकर वहाँ पहुँची थी ।

बुद्ध पहले तो महिलाओं को संघ में लेने के विरोधी थे किन्तु गौतमी के अनुनयविनय करने तथा अपने प्रिय शिष्य आनन्द के आग्रह करने पर उन्होंने इसकी अनुमति प्रदान कर दिया । कपिलवस्तु से राजगृह जाते समय बुद्ध ने अनुपिय नामक स्थान पर कुछ काल तक विश्राम किया । यहीं शाक्य राजा भद्रिक, अनुरुद्ध, उपालि, आनन्द, देवदत्त को साथ लेकर बुद्ध से मिला था ।

बुद्ध ने इन सभी को अपने मत में दीक्षित किया तथा आनन्द को अपना व्यक्तिगत सेवक बना लिया । वैशाली से बुद्ध भग्गों की राजधानी सुमसुमारगिरि गये और वहाँ आठवाँ वर्षाकाल व्यतीत किया। यहाँ बोधिकुमार उनका शिष्य बना । यहाँ से वे वत्सराज उदयन की राजधानी कौशाम्बी गये तथा वहाँ नवां विश्राम लिया ।

उदयन पहले बौद्ध मत में रुचि नहीं रखता था किन्तु खाद में बौद्ध भिक्षु पिन्डोला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया । उसने घोषिताराम विहार भिक्षु-संघ को प्रदान किया । यहाँ से बुद्ध मथुरा के समीप वेरन्जा गये जहाँ उन्होंने बारहवाँ वास किया ।

अवन्ति के राजा प्रद्योत ने भी उन्हें आमंत्रित किया किन्तु उन्होंने अपनी वृद्धावस्था के कारण वहाँ जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए अपने शिष्य महाकच्चायन को उसे उपदेश देने के लिये कहा । अवन्ति में भी बुद्ध के कुछ अनुयायी बन गये । बुद्ध ने चम्पा तथा कजंगल की भी यात्रा की तथा उन स्थानों में कुछ समय तक रहकर अनेक लोगों को अपने मत में दीक्षित किया ।

बौद्धधर्म का सबसे अधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ । यहाँ युद्ध ने इक्कीस दास किये । यहाँ अनाथपिण्डक नामक एक अत्यन्त धनी व्यापारी ने उनकी शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिये जेतवन विहार को, अदवार करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में राजकुमार जेत से खरीद कर प्रदान किया । भरहुत से प्राप्त एक शिल्प के ऊपर इस दान का अंकन मिलता है ।

इसमें ‘जेतवन अनाथपेन्डिकों देति कोटिसम्थतेनकेता’ लेख उत्कीर्ण मिलता है । कोशल नरेश प्रसेनजित ने भी अपने परिवार के साथ बुद्ध की शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिये ‘पुब्बाराम’ (पूर्वा- राम) नामक विहार बनवाया । बुद्ध जेतवन तथा पूर्वाराम नामक विहारों में बारी- बारी से विश्राम लेते थे ।

श्रावस्ती में ही रहते हुए बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक कुख्यात डाकू, जो मनुष्यों के अगुलियों को काटकर उनकी माला पहनता था, को अपने मत में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की । इस प्रकार कोशल राज्य में उनके सबसे अधिक अनुयायी बन गये ।

विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुये तथा लोगों को अपने मत में दीक्षित करते हुए युद्ध मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे । यहाँ चुन्द नामक लुहार की आम्रवाटिका में ठहरे । उसने बुद्ध को भोजन दिया । इसमें उन्हें ‘सूकरमइव’ जाने को दिया गया । कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ ‘सुअर का मद्य अथवा मांस’ बताया है, किन्तु यह तर्कसंगत नहीं है ।

वस्तुतः यह कोई वनस्पति थी जो सुअर के माँद के पास उगती थी, जैसे कुकुरमुत्ता आदि । इससे उन्हें रक्तातिसार हो गया और भयानक पीड़ा उत्पन्न हुई । इस वेदना को सहन करते हुए वे कुशीनारा पहुँचे । यहीं 483 ईसा पूर्व में 80 वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर त्याग किया ।

इसे बौद्ध ग्रन्थों में ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया है । मृत्यु के पूर्व बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा था- ”सभी सांघातिक वस्तुओं का विनाश होता है । अपनी मुक्ति के लिये उत्साहपूर्वक प्रयास करो ।” मल्लों ने अत्यन्त सम्मानपूर्वक उनका अत्येष्टि संस्कार किया । अनुश्रुति के अनुसार उनकी शरीर-धातु के आठ भाग किये गये तथा प्रत्येक भाग पर स्तूप बनवाये गये ।

महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की शरीर- धातु के दावेदारों के नाम इस प्रकार मिलते हैं:

(i) पावा तथा कुशीनारा के मल्ल,

(ii) कपिलवस्तु के शाक्य,

(iii) वैशाली के लिच्छवि,

(iv) अलकप्प के बुलि,

(v) रामगाम के कोलिय,

(vi) पिप्पलिवन के मोरिय,

(vii) वैठद्वीप के ब्राह्मण,

(viii) मगधराज अजातशत्रु ।

इस प्रकार बुद्ध के जीवन-काल में ही उनका धर्म भारत के समस्त मध्यक्षेत्र में फैल गया । बौद्ध साहित्य में बुद्ध के परिभ्रमण स्थानों का जो विवरण प्राप्त होता है उससे स्पष्ट है कि उनके धर्म का प्रचार पूर्व में चम्पा से लेकर पश्चिम में अवन्ति तक तथा उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में मगध तक हो गया था ।

इसकी सफलता के पीछे महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं महात्मा व्यक्तित्व मुख्य रूप से उत्तरदायी था । ज्ञान-प्रप्ति के पश्चात् उन्होंने अपने धर्म के प्रचारार्थ व्यापक भ्रमण किया । उनके उपदेश अत्यन्त व्यवहारिक एवं सरल हुआ करते थे तथा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अमीर हो अथवा गरीब, उनका अनुसरण कर सकता था ।

इसके लिये जाति-पाँति, छुआ-छूत तथा ऊँच-नीच का कोई बन्धन नहीं था । उनमें लोगों को प्रभावित करने की अद्‌भुत क्षमता थी । उन्होंने प्रचार के लिये जनसाधारण की भाषा ‘मागधी’ को अपनाया जो प्राकृत का ही एक रूप थी । बुद्ध ने कभी भी अपने मत को बलात् थोपने का प्रयास नहीं किया । वे गूढ दर्शन के प्रतिपादक भी नहीं थे । वे कहा करते थे कि यदि उनकी शिक्षायें अच्छी लगे तभी उन्हें ग्रहण किया जाये ।

रिजडेविड्‌स ने सही ही लिखा है कि ‘यदि बुद्ध मात्र दर्शन का उपदेश करते तो अनुयायियों की संख्या अत्यन्त सीमित रही होती ।’ उनके समकालीन बड़े-बडे राजाओं जैसे-मगधराज बिम्बिसार और अजातशत्रु, कोशलनरेश प्रसेनजित तथा वत्सराज उदयन ने उन्हें राजाश्रय प्रदान किया और उनकी शिष्यता ग्रहण कर ली ।

इन राज्यों की जनता ने भी खुले हृदय से इस धर्म को अपनाया । इस प्रकार बुद्ध के जीवन-काल में उनके अनुयायियों की संख्या अधिक हो गयी । अपने कार्य को स्थायित्व प्रदान करने के लिये उन्होंने भिक्षुओं के एक संघ की स्थापना की । संघ का संगठन तथा कार्य-पद्धति गणतन्त्रों की पद्धति के ही अनुकूल थी ।

प्रारम्भ में केवल पुरुष ही संघ में भिक्षु हो सकते थे, परन्तु बाद में बुद्ध ने संघ का द्वार स्त्रियों के लिये भी खोल दिया । बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् इसी बौद्ध सध द्वारा उनके मत का अधिकाधिक प्रचार हुआ तथा बुद्ध, धम्म और संघ-ये तीनों बौद्ध धर्म के ‘त्रिरत्न’ स्वीकार किये गये ।

बौद्ध भिक्षु अपनी दैनिक प्रार्थनाओं में इन तीनों को इस प्रकार दुहराते हैं:

बुद्ध, शरणं गच्छामि ।

धम शरणं गच्छामि ।

सघं शरणं गच्छामि ।

यहाँ उल्लेखनीय है कि तत्कालीन बदली हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया था । आर्थिक दृष्टि से यह काल गंगा-घाटी में नगरीय क्रान्ति का काल था । उत्तरी पूर्वी भारत में अनेक नगरों जैसे-कौशाम्बी, कुशीनगर, वाराणसी, वैशाली, राजगृह आदि की स्थापना हुई जहाँ बहुसंख्यक व्यापारी एवं शिल्पी बस गये ।

बुद्धकाल में ही भारतीय अर्थव्यवस्था सर्वप्रथम द्रव्य-युग में अवतीर्ण हुई । सिक्कों का व्यापक रूप से प्रचलन हुआ । आर्थिक समृद्धि तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के कारण लोगों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा था । ब्राह्मण धर्म अपने ग्रामीण आधार के कारण इस प्रकार के परिवेश के लिये अनुपयुक्त था ।

अतः लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए जो बदले हुए सामाजिक दृष्टिकोण तथा नवीन आर्थिक परिवेश के पूर्णतया अनुकूल था । यही कारण है कि बुद्ध तथा उनके धर्म को उस समय के कई धनी व्यापारियों तथा साहूकारों ने संरक्षण एवं सहायता प्रदान किया था ।

कौशाम्बी के घोषित, अंग के मण्डक, श्रावस्ती के अनाथपिण्डक आदि इस काल के समृद्ध श्रेष्ठि थे । इनके माध्यम से कोई आर्थिक कठिनाई उनके समक्ष उपस्थित नहीं हुई तथा उनका धर्म व्यापक आधार प्राप्त कर सका । प्रो॰ आर॰ एस॰ शर्मा के अनुसार ”बौद्ध धर्म का उदय, नवविकसित नगरीय परिवेश में अवमानित हुए मूल्यों को समाप्त करने तथा जो अच्छा और प्रगतिशील था उसे सर्मथन प्रदान करने के लिये हुआ था ।”

इसके सिद्धान्त नई अर्थव्यवस्था तथा अतिरिक्त उत्पादन के आधार पर विकसित हो रहे नगरीय जीवन के अनुकूल थे । किन्तु प्रो. जी सी. पाण्डे यह स्वीकार नहीं करते कि श्रेष्ठियों की अनुकूलता ने नास्तिक धर्मों के विकास में कोई सहायता दी होगी ।

उनके अनुसार जैन तथा बौद्ध सम्प्रदाय निवृत्तिपरक थे तथा उनके अनुसरण का धार्मिक सम्पत्ति हथियाने के लोभ के साथ कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता । इन धर्मों के उदय में श्रेष्ठियों की अनुकूलता को सहयोगी कारण बताने के मत के लिये विशुद्ध सम्भावना के अतिरिक्त विशेष प्रमाण नहीं है ।

पुनश्च बुद्धकाल में ‘नगर-क्रान्ति’ की बात को भी वे नहीं मानते । उनके अनुसार अस्तुतः कृषि-प्रधान भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ नगरों के उदय को नागरिक क्रान्ति की संज्ञा देना एक परिप्रेक्षात्मक भ्रान्ति है । प्राचीन सभ्यतायें नागरिक क्रान्ति से उतनी ही दूर थीं जितनी प्राचीन कारीगरी औद्योगिक क्रान्ति से ।

Essay # 4. बौद्ध संगतियों ( Buddhist Councils):

बौद्ध धर्म के विकास के इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों अथवा महासभाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । प्रथम संगति बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में हुई । इस समय मगध का शासक अजातशत्रु था । इस संगीति की अध्यक्षता महाकस्सप ने की तथा इसमें बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द और उपालि भी उपस्थित थे ।

इसमें बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन हुआ तथा उन्हें सुत्त और विनय नाम के दो पिटकी में विभाजित किया गया । आनन्द तथा उपालि क्रमशः धर्म और विनय के प्रमाण माने गये । सुत्तपिटक में धर्म के सिद्धान्त तथा विनयपिटक में आचार के नियम थे ।

द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन कालाशोक के शासनकाल में बुद्ध की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में किया गया । इस समय वैशाली के भिक्षुओं ने विनय सम्बन्धी कुछ ऐसे नियमों को अपना लिया था जिन्हें अवन्ति आदि पश्चिमी स्थानों के भिक्षु त्याज्य समझते थे । अतः पूर्वी तथा पश्चिमी भिक्षुओं के आपसी मतभेदों को दूर करने के लिये ही यह महासभा बुलाई गयी । इसका आयोजन स्थविरयश ने किया ।

पश्चिमी भिक्षु इस सभा में समूह बनाकर आये तथा उन्होंने पूर्वी भिक्षुओं से विनय के नियमों को त्याग देने का आग्रह किया । जब मतभेद बढ़ गया तो दोनों दलों के चार-चार वरिष्ठ भिक्षुओं को मिलाकर एक उपसमिति गठित की गयी । पूर्वी प्रदेश के भिक्षुओं में से सर्वकामी, साल्ह, क्षुद्रशोभित और वार्षभग्रामिक तथा पश्चिमी प्रदेश से रेवत, सम्भूतयश तथा सुमन को सम्मिलित किया गया ।

इनमें सबसे वयोवृद्ध तथा विद्वान् आचार्य सर्वकामी थे । अतः उन्हें ही महासभा तथा उपसमिति का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया गया । इस समिति ने पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद इन नियमों को महासभा में धर्म-विरुद्ध घोषित कर दिया । ये नियम नमक संग्रह, दोपहर के बाद भोजन करना, खाने के बाद छाछ पीना, साड़ी पीना, गद्देदार बिस्तर का प्रयोग, सोने-चाँदी का दान लेना, किसी कार्य को कर लेने के बाद संघ की अनुमति लेना, एक ही क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर सभायें (उपोस्थ) करना आदि थे ।

ऐसा गत होता है कि पूर्वी भिक्षुओं ने, जिन्हें ‘वज्जिपुत्र’ कहा गया, इस निर्णय को स्वीकार नहीं किया तथा उन्होंने दूसरी महासंगीति बुलाकर इन नियमों को धर्मसंगत घोषित करते हुए स्वीकार कर लिया । इसके फलस्वरूप भिक्षु संघ दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया ।

परम्परागत विनय में आस्था रखने वालों का सम्प्रदाय स्थविर अथवा थेरावादी तथा परिवर्तन के साथ विनय को स्वीकार करने वालों का सम्प्रदाय महासांघिक अथवा सवास्तिवादी कहा गया । प्रथम का नेतृत्व महाकच्चायन तथा द्वितीय का नेतृत्व महाकस्सप ने किया । बौद्ध संघ का यह विभेद बढ़ता गया तथा कालान्तर में दोनों सम्प्रदाय अट्‌ठारह उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गये ।

तृतीय बौद्ध संगीति मौर्यशासक अशोक के काल में पाटलिपुत्र में बुलायी गयी । इसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्य ने किया तथा इसमें स्थविर सम्प्रदाय का ही बोलबाला था । मोग्गलिपुत्त ने महासांघिक मतों का खण्डन करते हुए अपने सिद्धान्तों को ही बुद्ध के मौलिक सिद्धान्त घोषित किये ।

उन्होंने ‘कथावत्थु’ नामक ग्रन्थ का संकलन किया जो अभिधम्म पिटक के अन्तर्गत आता है । इस समिति ने बुद्ध की शिक्षाओं का विभाजन नये सिरे से किया तथा उसमें अभिधम्म नामक तीसरा पिटक जोड़ दिया । इसमें धर्म के सिद्धान्त की दार्शनिक व्याख्या मिलती है ।

इस प्रकार बुद्ध की शिक्षाओं के तीन भाग हो गये-सुत्त, विनय तथा अभिधम्म । इन्हें ‘त्रिपिटक’ की सका दी जाती है ।  तृतीय संगीति ने संघ-भेद को रोकने के लिये अत्यन्त कड़े नियम बना दिये तथा बौद्ध धर्म का साहित्य निश्चित एवं प्रामाणिक बना दिया गया । ऐसा लगता है कि इसी आधार पर अशोक ने संघभेद रोकने सम्बन्धी अपनी राजाज्ञा प्रसारित की थी ।

बौद्ध धर्म की चतुर्थ तथा अन्तिम संगीति कुषाण शासक कनिष्क के राज्यकाल में कश्मीर के कुण्डलवन में हुई । इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की तथा अश्वघोष इसके उपाध्यक्ष बने । इस सभा में महासंघिकों का बोलबाला था ।

यहाँ बौद्ध गन्थों के कठिन अंशों पर सम्यक् विचार-विमर्श किया गया तथा प्रत्येक पिटक पर भाष्य लिखे गये । कनिष्क ने इन्हें ताम्रपत्रों पर खुदवा कर एक स्तूप में रखवा दिया । त्रिपिटकों पर लिखे गये इन भाष्यों को ही ‘विभाषाशास्त्र’ कहा जाता है । इसी समय बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान नामक दो स्पष्ट एवं स्वतंत्र सम्प्रदायों में विभक्त हो गया जो क्रमशः स्थविर तथा महासांधिक से उद्‌भूत हुए थे ।

Essay # 5. बौद्धधर्म के सम्प्रदाय (Buddhist Religions):

हीनयान तथा महायान :

कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया:

(1) हीनयान,

(2) महायान ।

इस समय तक बौद्ध मतानुयायियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी । अनेक लोग इस धर्म में नवीन विचारों एवं भावनाओं के साथ प्रविष्ट हुये थे । अतः बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में समयानुसार परिवर्तन लाना जरूरी था । अतः इसमें सुधार की मांग होने लगी । इसके विपरीत कुछ रूढ़िवादी लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को ज्यों-का-त्यों बनाये रखना चाहते थे और वे उसके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन अथवा सुधार नहीं चाहते थे ।

ऐसे लोगों का सम्प्रदाय ‘हीनयान’ कहा गया । हीनयान का शाब्दिक अर्थ है-निम्न मार्ग । यह मार्ग केवल भिक्षुओं के लिये ही सम्भव था । बौद्ध धर्म का सुधारवादी सम्प्रदाय ‘महायान’ कहा गया । महायान का अर्थ है-उत्कृष्ट मार्ग । इसमें परसेवा तथा परोपकार पर विशेष बल दिया गया ।

बुद्ध की मूर्ति के रूप में पूजा होने लगी । यह मार्ग सर्वसाधारण के लिये सुलभ था । इसकी व्यापकता एवं उदारता को देखते हुये इसका ‘महायान’ नाम सर्वथा उपयुक्त लगता है । इसके द्वारा अधिक लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते थे ।

इन दोनों सम्प्रदायों में निम्नलिखित मुख्य विभेद है:

(1) हीनयान में महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता था । परन्तु महायान में उन्हें देवता माना गया तथा उनकी पूजा की जाने लगी, इसी के साथ अनेक बोधिसत्वों की भी पूजा प्रारम्भ हुई, मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति, जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दुखों से छुटकारा दिलाने के लिये प्रयत्नशील रहते थे बोधिसत्व कहे गये, प्रत्येक व्यक्ति बोधिसत्व हो सकता है । निर्माण में सभी मनुष्यों की सहायता करना बोधिसत्व का परम कर्तव्य है, उसमें करुणा तथा प्रज्ञा होती है ।

करुणा द्वारा वह जनसेवा करता है तथा प्रज्ञा से संसार का वास्तविक गान प्राप्त करता है, बोधिसत्व को दम आदर्शों को प्राप्त करने का आदेश दिया गया है । इन्हें ‘पारमिता’ कहा जाता है । पारमितायें वस्तुतः चारित्रिक पूर्णतायें है । ये हैं- दान, झील, सहनशीलता, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, प्रणिधान, बल तथा ज्ञान । इन्हें ‘दशशील’ कहा जाता है ।

(2) महायान में परसेवा तथा परोपकार पर बल दिया गया । उसका उद्देश्य समस्त मानव जीवन जाति का कल्याण है । इसके विपरीत हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है, इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिये ।

(3) महायान अत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास करता है, महायान में मूर्ति-पूजा का भी विधान है तथा मोक्ष के लिये बुद्ध की कृपा आवश्यक मानी गयी है, परन्तु हीनयान मूर्ति-पूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं रखता, महायान में तीर्थों को भी स्थान दिया गया,

(4) हीनयान की साधन-पद्धति अत्यन्त कठोर है तथा वह भिक्षु जीवन का हिमायती है । परन्तु महायान के सिद्धान्त सरल एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ है । यह मुख्यतः गृहस्थ धर्म है जिसमें भिक्षुओं के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्व दिया गया है,

(5) हीनयान का आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है । जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं उन्हें ‘अर्हत्’ कहा गया है, परन्तु निर्वाण के बाद उनका पुर्नजन्म नहीं होता । इसके विपरीत महायान का अदर्श ‘बोधिसत्व’ है । बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के बाद भी दूसरे प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं । महायान की महान्‌ता का रहस्य उसकी निस्वार्थ सेवा तथा सहिष्णुता है ।

इस प्रकार महायान में व्यापकता एवं उदारता है । जापानी बौद्ध विद्वान डी॰ टी॰ सुजुकी के शब्दों में महायान ने बुद्ध की शिक्षाओं के आन्तरिक महत्व का खण्डन किये बिना बौद्ध धर्म के मौलिक क्षेत्र को विस्तृत कर दिया ।

आगे चलकर उपर्युक्त दोनों सम्प्रदायों के अन्तर्गत भी दो-दो सम्प्रदाय बन गये । हीनयान के प्रमुख सम्प्रदाय है- वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक । महायान के सम्प्रदाय है- शून्यवाद (माध्यमिक) तथा विज्ञानवाद योगाचार । सातवीं-आठवीं शताब्दी में वज्रयान नामक एक अन्य सम्प्रदाय का उदय हुआ ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

i. वैभाषिक सम्प्रदाय :

इस मत की उत्पत्ति मुख्य रूप से कश्मीर में हुई । विभाषाशास्त्र पर आधारित होने के कारण इसे वैभाषिक नाम दिया गया है । वैभाषिक मतानुयायी चित्त तथा बाह्य वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए यह प्रतिपादित करते है कि वस्तुओं को ज्ञान केवल प्रत्यक्ष से ही सम्भव है । इसके अतिरिक्त कोई दूसरा साधन नहीं है । अतः इस मत को ‘वाह्य प्रत्यक्षवाद’ भी कहा जाता है ।

वैभाषिक सम्यक् ज्ञान को प्रमाण कहते है । उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु का निर्माण परमाणुओं से होता है जो प्रतिक्षण अपना स्थान बदलते रहते है । उनके अनुसार जगत् का अनुभव इन्द्रियों द्वारा होता है ।

धर्मत्रात, घोषक, वसुमित्र, बुद्धदेव आदि वैभाषिक मत के प्रमुख आचार्य हैं ।

ii. सौत्रान्तिक सम्प्रदाय :

इस मत का मुख्य आधार सूत्र (सुत्त) पिटक है, अतः इसे मौत्रान्त्रिक कहा जाता है । सौत्रान्तिक चित्त तथा वाह्य जगत् दोनों की सत्ता में विश्वास करते है । किन्तु वे यह नहीं मानते कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से होता है । उनके मत में बाह्य जगत् की वस्तुओं का जो हम अनुभव करते है वह वस्तुतः हमारे मन के विकल्प मात्र है । वह हमारे विचारों के ही प्रतिरूप है ।

मन में बाह्य वस्तुओं के आकार बनते हैं जो बाह्य सत्ता का बोध कराते है । बाह्य वस्तुओं के अनेक आकार होने के कारण ही शान के भी भिन्न-भिन्न आकार होते है । ज्ञान दीपक के समान अपने को स्वतः प्रकाशित करता है । सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक कुमारलात थे । श्रीलाभ नामक एक अन्य आचार्य का नाम भी इसमें मिलता है ।

iii. माध्यमिक (शून्यवाद) सम्प्रदाय :

इस मत के प्रवर्त्तक नागार्जुन है जिसकी प्रसिद्ध रचना ‘माध्यमिककारिका’ है । इसे सापेक्ष्यवाद भी कहा जाता है जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई है और वह पर-निर्भर है । नागार्जुन ने ‘प्रतित्यसमुत्पाद’ को ही शून्यता कहा है ।

इस मत में महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यम-मार्ग को विकसित किया गया है । शून्यवाद के अनुसार परम तत्व को बुद्धि अथवा विचारों के द्वारा नहीं समझा जा सकता । उसका स्वरूप सर्वथा अवर्णनीय है ।

सामान्यतः किसी वस्तु के ज्ञान के सम्बन्ध में चार प्रकार होते हैं:

(a) वस्तु का अस्तित्व है ।

(b) वस्तु का अस्तित्व नहीं है ।

(c) वस्तु का अस्तित्व है भी और नहीं भी है ।

(d) वस्तु का अस्तित्व न तो है और न नहीं ही है ।

किन्तु पारमार्थिक अथवा परमतत्व का ज्ञान उपर्युक्त चारों कोटियों से रहित है और इस कारण वह शून्य है । अतः वर्णनातीत तत्व ही शून्यता है । इस प्रकार शून्यवाद का अर्थ विनाशवाद नहीं है, अपितु यह परम तत्व अथवा पारमार्थिक सत्ता को तर्क एवं बुद्धि की सीमा से परे मानता है ।

शून्यता दो प्रकार की मानी गयी है- अस्तित्व शून्यता तथा विचार शून्यता । अस्तित्व शून्यता का अर्थ यह है कि संसार की सभी वस्तुएं कार्य-कारण के नियम से बँधी हुई है (अप्रतीत्य-समुत्पन्नोधर्मः कश्चिन्नविद्यते) । विचार-शून्यता का अर्थ यह है कि हमारे विचारों में भी कोई स्थायी आन्तरिक सूत्र नहीं होता है और वे निरन्तर परिवर्तनशील होते हैं ।

शून्यवादी दो प्रकार के सत्य स्वीकार करते हैं:

(I) संवृत्ति सत्य तथा

(II) पारमार्थिक सत्य ।

संवृत्ति सत्य सांसारिक सत्य है जो साधारण मनुष्यों के लिये है । यह बुद्धि द्वारा समझा जा सकता है । पारमार्थिक सत्य से तात्पर्य परम सत्य से है जो तर्क और बुद्धि से परे है । संवृत्ति सत्य पारमार्थिक सत्य की प्राप्ति साधन मात्र होता है । यह अन्ततोगत्वा मिथ्या है । इसका आवरण हटने पर ही परम सत्य की प्राप्ति होती है ।

माध्यमिक कारिका में एक स्थान पर कहा गया है कि जो इन दोनों सत्यों का भेद समझता है वही बुद्ध की गूढ़ शिखाओं को समझ सकता है । शून्यवाद का लक्ष्य शून्य दृष्टि की प्राप्ति है जिसे प्रज्ञा अथवा अलौकिक ज्ञान कहा जाता है । यह समाधि द्वारा सम्भव है । समाधि में छः पारमिताओं-दान, शील, शान्ति वीर्य ध्यान तथा प्रज्ञा का बोध एवं अध्यास कराया जाता है, इन्हीं के अभ्यास एवं पालन से साधक शून्यदृष्टि को प्राप्त करता है ।

शून्य दृष्टि को प्राप्त करने पर दुखों का विनाश हो जाता है तथा निर्वाण की प्राप्ति होती है । यह वर्णनातीत है । माध्यमिक कारिका में नागार्जुन एक स्थान पर निर्वाण का वर्णन इस प्रकार करते हैं- ‘जो अज्ञात है, जिसकी प्राप्ति नई नहीं है, जिसका विनाश नहीं है, जो उत्पन्न भी नहीं है, उसी का नाम निर्वाण है ।’

इस प्रकार शून्यवाद में बुद्ध के उपदेशों को ही विकसित करने का प्रयास किया गया है । बुद्ध ने स्वयं मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था और निर्वाण को वर्णनातीत बताया था । नागार्जुन के अतिरिक्त इस मत के अन्य विद्वान् चन्दकीर्ति, शान्तिदेव, आर्य देव, शान्ति रक्षित आदि थे । इन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा शून्यवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ।

iv. विज्ञानवाद (योगाचार) समुदाय :

इस सम्प्रदाय की स्थापना ईसा की तीसरी शताब्दी में मैत्रेय या मैत्रेयनाथ ने की थी । असंग तथा वसुबन्धु ने इसका विकास किया । वसुबन्धु कृत ‘वज्रछंदिका’ नामक ग्रन्थ में विज्ञानवाद का विकास दिखाया गया है । यह मत चित्त अथवा विज्ञान की ही एक मात्र सत्ता स्वीकार करता है जिससे इसे विज्ञानवाद कहा जाता है । योग तथा आचार पर विशेष वल देने के कारण इसे योगाचार भी कहते है ।

योगाचार मत के अनुसार चित्त (मन) या विज्ञान के अतिरिक्त संसार में किसी भी का अस्तित्व नहीं है । समस्त बाह्य पदार्थ, जिन्हें देखते हैं, चित्त के विज्ञान मात्र है । जो पदार्थ बाहर समझे जाते हैं वे वस्तुतः हमारे मन के ही अन्तर्गत है । जिस तरह स्वप्न की अवस्था में वस्तुओं को बाह्य मानते हैं जबकि वे मन के भीतर ही रहती है, उसी प्रकार जो पदार्थ सामान्य अवस्था में वाह्य प्रतीत हैं वे विज्ञान मात्र है । विज्ञान से भिन्न किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं हैं ।

विज्ञानवादी चित्त को आलय विज्ञान कहते हैं क्योंकि वह सभी प्रकार के विज्ञानों का आलय (घर) है । इसमें सभी ज्ञान बीज रूप में निवास करते हैं । योगाचार द्वारा आलय विज्ञान को वश में करके विषय ज्ञान की उत्पत्ति को रोका जा सकता है । ऐसा हो जाने पर व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त करता है ।

ऐसा न होने पर सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है तथा भवबन्धन से छुटकारा कभी नहीं मिलता है । इस प्रकार आलय विज्ञान अन्य दर्शनों की आत्मा से सदृश है । किन्तु जहां आत्मा नित्य है वहाँ यह परिवर्तनशील चित्तवृत्तियों का प्रवाह मात्र है ।

विज्ञानवादी भी शून्यवादियों की भाँति वाह्य वस्तुओं का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते किन्तु वे चित्त की सत्ता को मानते हैं क्योंकि ऐसा न मानने पर कोई भी विचार प्रतिपादित नहीं किया जा सकता । उनके अनुसार केवल चित्त की ही प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है । यही उत्पन्न होती है तथा इसी का निरोध भी होता है ।

v. वज्रयान सम्प्रदाय :

ईसा की पाँचवीं या छठीं शताब्दी से बौद्ध धर्म के ऊपर तंत्र-मंत्री का प्रभाव बढ़ने लगा जिसके फलस्वरूप वज्रयान नामक नये सम्प्रदाय का जन्म हुआ । इसमें मंत्रों तथा तांत्रिक क्रियाओं द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का विधान प्रस्तुत किया गया है । वज्रयानी ‘वज्र’ को एक अलौकिक तत्व के रूप में मानते हैं । इसका तादात्म्य ‘धर्म’ के साथ स्थापित किया गया है ।

इसकी प्राप्ति के लिए भिक्षा, तप आदि के स्थान पर मैथुन, मांस आदि के सेवन पर जोर दिया गया । वज्रयानियों की क्रियायें शाक्त मतावलम्बियों से मिलती-जुलती हैं । इसमें तारा आदि देवियों को महत्व प्रदान किया गया है ।

यह प्रतिपादित किया गया है कि रूप, शब्द, स्पर्श आदि भोगों से बुद्ध की पूजा की जानी चाहिये । रागचर्या को सर्वोत्तम बताया गया है । वज्रयान का सबसे अधिक विकास आठवीं शताब्दी में हुआ । इसके सिद्धान्त मंजुश्रीमूलकल्प तथा गुह्यसमाज नामक ग्रन्थों में मिलते हैं । वज्रयान ने भारत से बौद्धधर्म के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया ।

Essay # 6. बौद्धधर्म का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Buddhism):

महात्मा गौतमबुद्ध ने जिस धर्म का प्रवर्त्तन किया वह उनके जीवन-काल में ही उत्तरी भारत का एक लोकप्रिय धर्म बन गया ।

इसकी सफलता के लिए निम्नलिखित कारण मुख्य रूप में उत्तरदायी थे:

(1) बौद्धधर्म के प्रसार के लिये स्वयं महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व बहुत कुछ अंशों में उत्तरदायी रहा । ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने अपने मत का प्रचार करने के लिये व्यापक रूप से परिभ्रमण किया । दूर-दूर स्थानों में जाकर सामान्य जनता के बीच उन्होंने अपने उपदेश दिये । ये अत्यन्त सरल एवं सुग्राह्य होते थे ।

उनकी दृष्टि में अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं था तथा सभी वर्गों के लोग, चाहे वे ब्राह्मण हो या शूद्र, इन्हें श्रवण कर सकते और अपना सकते थे । बुद्ध मानव मात्र की समानता में विश्वास रखते थे । उनके ओजपूर्ण तर्कों को सुनकर लोग प्रभावित हो जाते तथा उनकी शिष्यता ग्रहण कर लेते थे ।

(2) बौद्धधर्म का दार्शनिक एवं क्रिया पक्ष अत्यन्त सरल था । ब्राह्मण धर्म की कर्मकाण्डीय व्यवस्था से लोग ऊब गये थे । ऐसे समय में बौद्धधर्म ने जनता के समक्ष एक सरल एवं आडम्बररहित धर्म का विधान प्रस्तुत किया । इसके पालनार्थ किसी पण्डित-पुरोहित की आवश्यकता नहीं थी और न ही जाति एवं सामाजिक स्तर का कोई भेद-भाव था । अतः समाज के उपेक्षित वर्गों ने उत्सुकतापूर्वक इस धर्म को ग्रहण कर लिया ।

(3) महात्मा बुद्ध के समय में पाली सामान्य जनता की भाषा थी । उन्होंने अपने उपदेश पाली में दिये जिससे सामान्य-जन इसे आसानी से समझ सके । इसके विपरीत ब्राह्मण धर्म-साहित्य क्लिष्ट संस्कृत में होने के कारण सभी के द्वारा बोधगम्य नहीं था । भाषा की सुगमता तथा बोधगम्यता ने भी बौद्धधर्म को लोक धर्म बनाने में योगदान दिया ।

(4) ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्डों एवं उसकी क्रियाओं के अनुष्ठान में बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती थी । जिससे केवल कुलीन वर्ग के लोग ही इन्हें सम्पादित कर सकते थे । इसके विपरीत बौद्धधर्म के अनुपालन में किसी व्यय की आवश्यकता नहीं थी । इसमें केवल नैतिकता तथा सच्चरित्रता पर बल दिया गया था । अतः अधिकाधिक लोग इस मत की और आकर्षित हुए ।

(5) महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन-काल में ही संघ की स्थापना की थी । बाद में इन्हीं संघों द्वारा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार हुआ । इनमें बहुसंख्यक भिक्षु निवास करते थे । वे स्थान-स्थान पर जाकर अपने मत का प्रचार-प्रसार करते थे । बौद्ध संघ देश के विभिन्न भागों में फैले हुए थे ।

(6) बौद्ध धर्म के प्रसार में राजकीय संरक्षण का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । स्वयं युद्ध के समय में तथा उनके बाद भी भारत के अनेक महान् राजाओं ने इस धर्म को ग्रहण किया तथा इसके प्रचार-प्रसार में अपने राज्य के साधनों को लगा दिया । ऐसे राजाओं में बिम्बिसार, अजातशत्रु, कनिष्क, हर्षवर्धन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

अशोक ने तो इस धर्म को स्थानीय स्तर पर ऊपर उठाकर अपने प्रयासों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया । मध्य-एशिया, चीन, कोरिया, जापान, लंका, दक्षिणी-पूर्वी एशिया आदि के विभिन्न भागों में इस धर्म का प्रचार हुआ । अशोक ने यूनानी राज्यों में भी इसका प्रचार करवाया था ।

(7) बौद्धधर्म को तत्कालीन भारत के सुप्रसिद्ध व्यापारियों एवं साहूकारों ने भी उदारतापूर्वक धन दान दिये क्योंकि इसके सिद्धान्त उनकी कुछ मान्यताओं के अनुकूल थे । बुद्ध ने सूदखोरी को सम्मानित व्यवसाय मानते हुए उसको मान्यता प्रदान की जबकि बाह्मण ग्रन्थ इसे निन्दनीय मानते थे । इस कारण उस युग के श्रेष्ठि बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हो गये ।

इनकी सहायता में इसके समक्ष कोई आर्थिक संकट उपस्थित नहीं हुआ । सातवीं शताब्दी तक भारत में बौद्ध धर्म की निरन्तर प्रगति होती रही । तत्पश्चात् उसका क्रमिक ह्रास प्रारम्भ हुआ तथा अन्ततोगत्वा बाहरहीं शताब्दी तक यह धर्म अपनी मूलभूमि से विलुप्त हो गया । बौद्धधर्म के अवनति काल में विहार तथा बंगाल के पाल राजाओं ने उसे संरक्षण प्रदान किया किन्तु उनके बाद इसे कोई संरक्षण नहीं मिला ।

बौद्धधर्म के पतन के लिए विभिन्न कारणों को उत्तरदायी माना गया है । इसमें मुख्य कारण बौद्धसंघ में विभेद तथा उसके अनुयायियों का विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित होना है । कनिष्क के समय में यह धर्म स्पष्टत हीनयान तथा महायान नामक दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया ।

महायानियों ने हिन्दू धर्म की पूजा-पद्धति एवं संस्कारों को अपना लिया तथा बुद्ध को देवता मान कर उनकी पूजा प्रारम्भ कर दी गयी । साथ ही साथ अनेक बोधिसत्वों की पूजा का विधान प्रस्तुत किया गया । बुद्ध तथा बोधिसत्वों की उपासना के लिये मन्दिरों का भी निर्माण हुआ ।

बुद्ध तथा बोधिसत्वों के अतिरिक्त अन्य कई देवी- देवताओं का भी इस मत में आविष्कार हो गया जिन्हें बुद्ध के विविध प्रतीकों से सम्बन्धित करके पूजा जाने लगा । इस प्रकार बौद्धधर्म हिन्दू धर्म के अत्यन्त निकट आ गया । बौद्ध विहार तथा मन्दिरों में महिलाओं का प्रवेश हो जाने से भ्रष्टाचार बढ़ गये तथा भिक्षुओं का चारित्रिक पतन हो गया ।

बौद्धधर्म में नैतिकता का स्थान तन्त्र-मन्त्र ने ग्रहण कर लिया तथा भिक्षु अनेक छू एवं तान्त्रिक साधनाओं द्वारा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने लगे । तान्त्रिक भिक्षुओं का सम्प्रदाय ‘वज्रयान’ कहा गया । वे अपनी साधना में सुरा-सुन्दरी को प्राथमिकता देने लगे । उनकी संख्या बढ़ती गयी जिससे बौद्धधर्म का मूल स्वरूप ही नष्ट हो गया । नवीं शती तक आते-आते वज्रयान का भारत में खूब प्रचार हो गया ।

अब नालन्दा उनके प्रचार का प्रमुख केन्द्र बन गया । बारहवीं शती तक बौद्धधर्म पूर्ण रूप से तन्त्रयान (वज्रयान) के प्रभाव में आ गया । तान्त्रिक भिक्षु तारादेवी की उपासना करते थे । बौद्धधर्म में किसी ऐसे महापुरुष का जन्म नहीं हुआ जो उसमें व्याप्त कुरीतियों को समाप्त कर उसे सही दिशा दे सकता । इधर हिन्दू धर्म में शहर, कुमारिल, रामानुज जैसे महान् आचार्यों का आविर्भाव हुआ ।

उन्होंने हिन्दू धर्म की व्याख्या नये सिरे से की जिससे अधिकाधिक लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हो गये । बुद्ध को भगवान विष्णु का एक अवतार मानकर हिन्दू धर्म में ग्रहण कर लिया गया । इसके फलस्वरूप बहुसंख्यक बौद्धों ने हिन्दू धर्म को ग्रहण कर लिया ।

जिस समय उत्तरी भारत में बौद्धधर्म वज्रयानियों द्वारा नैतिकताविहीन तथा जर्जर किया जा रहा था उसी समय वहाँ तुर्कों का आक्रमण हुआ । इस आक्रमण ने पतनोन्मुख बौद्धधर्म को घातक चोट पहुँचायी जिससे वह कभी उबर न सका ।

नालन्दा तथा अन्य स्थानों के प्रसिद्ध बौद्धमठ तथा स्मारक ध्वस्त कर दिये गये तथा बहुसंख्यक भिक्षुओं की हत्या कर दी गयी । इस आक्रमण ने तन्त्रयानियों की सिद्धि-शक्ति एवं तन्त्र-मन्त्र के प्रभाव को मिथ्या सिद्ध कर दिया । फलस्वरूप भारतीय जनता का विश्वास उनसे उठ गया तथा किसी ने उन्हें शरण अथवा सहायता देकर उनके ध्वस्त स्मारकों के जीर्णोद्धार कराने का प्रयास नहीं किया ।

अधिकांश बौद्ध भिक्षु तिब्बत भाग गये तथा बचे हुए में से कई ने हिन्दू तथा इस्लाम आदि धर्मों को ग्रहण कर लिया । इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि से विलुप्त हो गया । जी. सी. पाण्डे यह स्वीकार नहीं करते कि बौद्ध धर्म के पतन में तंत्रयानियों के आचार अथवा कुमारिल और शकर जैसे हिन्दु दार्शनिकों के वाद-कौशल का हाथ रहा है ।

उनके अनुसार शैव तथा शाक्त धर्म में भी तांत्रिक आचार तथा उनसे संबद्ध कुछ विकृतियों विद्यमान थी किन्तु इनका विलोप नहीं हुआ और न तार्किक खण्डन से किसी धर्म का लोप माना जा सकता है । वस्तुतः बौद्धधर्म मुख्य रूप से भिक्षुओं का धर्म था जिनका जीवन विहारों में केन्द्रित था ।

उपासकों के लिये यह अपना पृथक् और पर्याप्त नैतिक-सामाजिक आचार एवं संस्थायें विहित नहीं कर पाया था । बौद्ध विहार प्रायः राजकीय अनुदान पर निर्भर करते थे । अतः विहारों के लोप के साथ-साथ उपासकों की क्षीण बौद्धता का विलोप अनिवार्य था । सम्प्रति भारत में महाबोधि सभा, जिसकी स्थापना सिंहल के स्वर्गीय देवमित्र धर्मपाल ने की थी, बौद्धधर्म को पुनरुज्जीविन करने का श्लाध्य प्रयास कर रही है ।

Essay # 7. बौद्धधर्म की देन (Contribution of Buddhism):

भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों के निर्माण एवं विकास में बौद्धधर्म का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्व रहा है ।

इसकी देनों को निम्नलिखित प्रकार से रख सकते हैं :

(i) बौद्धधर्म ने ही सर्वप्रथम भारतीयों को एक सरल तथा आडम्बररहित धर्म प्रदान किया जिसका अनुसरण राजा-रंक, ऊँच-नीच सभी कर सकते थे । धर्म के क्षेत्र में इसने अहिंसा रख सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया । अशोक कनिष्क, हर्ष आदि राजाओं में जो धार्मिक सहिष्णुता देखने को मिलती है वह बौद्धधर्म के प्रभाव का ही परिणाम थी । अशोक ने युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर धम्मविजय की नीति को अपनाया तथा लोककल्याण का आदर्श समस्त विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया ।

(ii) बौद्धधर्म के उपदेश तथा सिद्धान्त पाली भाषा में लिखे गये जिससे पाली भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ ।

(iii) बौद्ध संघों की व्यवस्था जनतन्त्रात्मक प्रणाली पर आधारित थी । इसके तत्वों को हिन्दू मठों तथा बाद में राजशासन में ग्रहण किया गया ।

(iv) भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र की प्रगति बौद्धधर्म के प्रभाव से ही हुई । बौद्ध दर्शन में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की जिन दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ उनका प्रभाव शंकराचार्य के दर्शन पर पड़ा । यही कारण है कि शंकराचार्य को कभी-कभी प्रच्छन्न-बौद्ध भी कहा जाता है ।

(v) बौद्धधर्म ने लोगों के जीवन का नैतिक स्तर ऊँचा उठाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया । जन-जीवन में सदाचार एवं सच्चरित्रता की भावनाओं का विकास हुआ । बुद्ध स्वयं नैतिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे तथा गान से भी इसे बढ्‌कर मानते थे ।

(vi) बौद्धधर्म ने न केवल भारत अपितु विश्व के देशों को अंहिसा, शान्ति बन्धुत्व, सह-अस्तित्व आदि का आदर्श बताया । इसके कारण ही भारत का विश्व के देशों पर नैतिक आधिपत्य कायम हुआ । बुद्ध ने मानव जाति की समानता का आदर्श प्रस्तुत किया था ।

(7) बौद्धधर्म के माध्यम से भारत का सांस्कृतिक सम्पर्क विश्व के विभिन्न देशों के साथ स्थापित हुआ । भारत के भिक्षुओं ने विश्व के विभिन्न भागों में जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया । महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं से आकर्षित होकर शक, पार्थियन, कुषाणादि विदेशी जातियों ने बौद्धधर्म को ग्रहण कर लिया ।

यवन-शासक मेनाण्डर तथा कुषाण शासक कनिष्क ने इसे राजधर्म बनाया और अपने साम्राज्य के साधनों को इसके प्रचार में लगा दिया । अनेक विदेशी यात्री तथा विहार बौद्धधर्म का अध्ययन करने तथा पवित्र बौद्धस्थलों को देखने की लालसा से भारत की यात्रा में आये । फाहियान, हुएनसांग तथा इत्सिंग जैसे चीनी यात्रियों ने भारत में वर्षों तक निवास कर इस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया । आज भी विश्व की एक तिहाई जनता बौद्धधर्म तथा उसके आदर्शों में अपनी श्रद्धा रखती है ।

(8) बौद्धधर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन भारतीय कला एवं स्थापत्य के विकास में रही । इस धर्म की प्रेरणा पाकर शासकों एवं श्रद्धालु जनता द्वारा अनेक स्तूप, विहार, चैत्यगृह, गुहायें, मूर्तियाँ आदि निर्मित की गयी जिन्होंने भारतीय कला को समृद्धशाली बनाया ।

साँची, सारनाथ, भरहुत आदि के स्तुप, अजन्ता की गुफायें एवं उनकी चित्रकारियों, अनेक स्थानों से प्राप्त एवं संग्रहालयों में सुरक्षित बुद्ध एवं बोधिसत्वों की मूर्तियों आदि बौद्धधर्म की भारतीय संस्कृति को अनुपम देन है । गन्धार, मथुरा, अमरावती, नासिक, कार्ले, भाजा आदि बौद्धकला के प्रमुख केन्द्र थे । गन्धार शैली के अन्तर्गत ही सर्वप्रथम बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया । आज भी भारत के कई स्थानों पर बौद्ध स्मारक विद्यमान है तथा श्रद्धालुओं के आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं ।

(9) विश्व के देशों को अहिंसा, करुणा, प्राणिमात्र पर दया आदि का सन्देश भारत ने बौद्धधर्म के माध्यम से ही दिया । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शताब्दियों पूर्व महात्मा युद्ध ने जिन सिद्धान्तों एवं आदर्शों का प्रतिपादन किया वे आज के वैज्ञानिक युग में भी अपनी मान्यता बनाये हुए है तथा संसार के देश उन्हें कायान्वित करने का प्रयास कर रहे हैं ।

भारत ने अपने राजचिह्न के रूप में बौद्ध प्रतीक को ही ग्रहण किया है तथा वह शान्ति एवं सह-अस्तित्व के सिद्धान्तों का पोषक बना हुआ है । पंचशील का सिद्धान्त बौद्धधर्म की ही देन है । आधुनिक संघर्षशील युग में यदि बुद्ध के सिद्धान्तों का अनुसरण करें तो निसन्देह शान्ति एवं सद्‌भाव स्थापित हो सकती है ।

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भगवान गौतम बुद्ध.

Last Updated: May 30, 2021 By Gopal Mishra 96 Comments

Life of Gautam Buddha in Hindi

बुद्धं शरणम् गच्छामि

जो नित्य एवं स्थाई प्रतीत होता है, वह भी विनाशी है। जो महान प्रतीत होता है, उसका भी पतन है। जहाँ संयोग है वहाँ विनाश भी है। जहाँ जन्म है वहाँ मरण भी है। ऐसे सारस्वत सच विचारों को आत्मसात करते हुए महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की जो विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक है।

rummy gold

विश्व के प्रसिद्द धर्म सुधारकों एवं दार्शनिकों में अग्रणी महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं का विवरण अनेक बौद्ध ग्रन्थ जैसे- ललितबिस्तर, बुद्धचरित, महावस्तु एवं सुत्तनिपात से ज्ञात होता है। भगवान बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी वन में 563 ई.पू. में हुआ था। आपके पिता शुद्धोधन शाक्य राज्य कपिलवस्तु के शासक थे। माता का नाम महामाया था जो देवदह की राजकुमारी थी। महात्मा बुद्ध अर्थात सिद्धार्थ (बचपन का नाम) के जन्म के सातवें दिन माता महामाया का देहान्त हो गया था, अतः उनका पालन-पोषण उनकी मौसी व विमाता प्रजापति गौतमी ने किया था।

सिद्धार्थ बचपन से ही एकान्तप्रिय, मननशील एवं दयावान प्रवृत्ति के थे। जिस कारण आपके पिता बहुत चिन्तित रहते थे। उपाय स्वरूप सिद्धार्थ की 16वर्ष की आयु में गणराज्य की राजकुमारी यशोधरा से शादी करवा दी गई। विवाह के कुछ वर्ष बाद एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया। समस्त राज्य में पुत्र जन्म की खुशियां मनाई जा रही थी लेकिन सिद्धार्थ ने कहा, आज मेरे बन्धन की श्रृंखला में एक कङी और जुङ गई। यद्यपि उन्हे समस्त सुख प्राप्त थे, किन्तु शान्ति प्राप्त नही थी। चार दृश्यों (वृद्ध, रोगी, मृतव्यक्ति एवं सन्यासी) ने उनके जीवन को वैराग्य के मार्ग की तरफ मोङ दिया। अतः एक रात पुत्र व अपनी पत्नी को सोता हुआ छोङकर गृह त्यागकर ज्ञान की खोज में निकल पङे।

गृह त्याग के पश्चात सिद्धार्थ मगध की राजधानी राजगृह में अलार और उद्रक नामक दो ब्राह्मणों से ज्ञान प्रप्ति का प्रयत्न किये किन्तु संतुष्टि नहीं हुई। तद्पश्चात निरंजना नदी के किनारे उरवले नामक वन में पहुँचे, जहाँ आपकी भेंट पाँच ब्राह्मण तपस्वियों से हुई। इन तपस्वियों के साथ कठोर तप किये परन्तु कोई लाभ न मिल सका। इसके पश्चात सिद्धार्थ गया(बिहार) पहुँचे, वहाँ वह एक वट वृक्ष के नीचे समाधी लगाये और प्रतिज्ञां की कि जबतक ज्ञान प्राप्त नही होगा, यहाँ से नही हटुँगा। सात दिन व सात रात समाधिस्थ रहने के उपरान्त आंठवे दिन बैशाख पूणिर्मा के दिन आपको सच्चे ज्ञान की अनुभूति हुई। इस घटना को “सम्बोधि” कहा गया। जिस वट वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे “बोधि वृक्ष” तथा गया को “बोध गया” कहा जाता है।

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ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महात्मा बुद्ध सर्वप्रथम सारनाथ(बनारस के निकट) में अपने पूर्व के पाँच सन्यासी साथियों को उपदेश दिये। इन शिष्यों को “पंचवगीर्य’ कहा गया। महात्मा बुद्ध द्वारा दिये गये इन उपदेशों की घटना को ‘धर्म-चक्र-प्रवर्तन’ कहा जाता है। भगवान बुद्ध कपिलवस्तु भी गये। जहाँ उनकी पत्नी,पुत्र व अनेक शाक्यवंशिय उनके शिष्य बन गये। बौद्ध धर्म के उपदेशों का संकलन ब्राह्मण शिष्यों ने त्रिपिटकों के अंर्तगत किया। त्रिपिटक संख्या में तीन हैं-

  • अभिधम्म पिटक

इनकी रचना पाली भाषा में की गई है।हिन्दू-धर्म में वेदों का जो स्थान है, बौद्ध धर्म में वही स्थान पिटकों का है।

भगवान बुद्ध के उपदेशों एवं वचनों का प्रचार प्रसार सबसे ज्यादा सम्राट अशोक ने किया। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार से व्यथित होकर अशोक का ह्रदय परिवर्तित हुआ उसने महात्मा बुद्ध के उपदेशों को आत्मसात करते हुए इन उपदेशों को अभिलेखों द्वारा जन-जन तक पहुँचाया। भीमराव आम्बेडकर भी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।

महात्मा बुद्ध आजीवन सभी नगरों में घूम-घूम कर अपने विचारों को प्रसारित करते रहे। भ्रमण के दौरान जब वे पावा पहुँचे, वहाँ उन्हे अतिसार रोग हो गया था। तद्पश्चात कुशीनगर गये जहाँ 483ई.पू. में बैशाख पूणिर्मा के दिन अमृत आत्मा मानव शरीर को छोङ ब्रहमाण्ड में लीन हो गई। इस घटना को ‘महापरिनिर्वाण’ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के उपदेश आज भी देश-विदेश में जनमानस का मार्ग दर्शन कर रहे हैं। भगवान बुद्ध प्राणी हिंसा के सख्त विरोधी थे। उनका कहना था कि,

जैसे मैं हूँ, वैसे ही वे हैं, और ‘जैसे वे हैं, वैसा ही मैं हूं। इस प्रकार सबको अपने जैसा समझकर न किसी को मारें, न मारने को प्रेरित करें।

भगवान् बुद्ध के सुविचारों के साथ ही मैं अपनी कलम को विराम देना चाहूंगी , “हम जो कुछ भी हैं वो हमने आज तक क्या सोचा इस बात का परिणाम है। यदि कोई व्यक्ति बुरी सोच के साथ बोलता या काम करता है, तो उसे कष्ट ही मिलता है। यदि कोई व्यक्ति शुद्ध विचारों के साथ बोलता या काम करता है, तो परछाई की तरह  ही प्रसन्नता उसका साथ कभी नहीं छोडती।“

Anita Sharma Voice For Blind

अनिता जी दृष्टिबाधित लोगों की सेवा में तत्पर हैं। उनके बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें –  नेत्रहीन लोगों के जीवन में प्रकाश बिखेरती अनिता शर्मा और  उनसे जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। Also Read:

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I am grateful to  Anita Ji  for sharing this inspirational Hindi Essay on  Lord Gautam Buddha’s Life in Hindi  . Thanks.

Buddha Purnima / Budhha Jayanti  will be celebrated on on 25th May this year .

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July 1, 2019 at 9:29 pm

बहुत ही अच्छा धर्म सुधारक थे भगवन गौतम बुद्ध उन्होंने सभी को अपने बताये गए राहों पर चलने के लिए प्रेरित किया

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April 5, 2018 at 5:58 pm

मेम मेरा आपसे एक ही सवाल है की जब भगवान् बुद्ध खुद एक छत्रिय राजा थे तो फिर उनको पूजने वाले उनको उनका धरम अनुसरण करने वाले दलित कैसे हो सकते है उनकी नजरो में तो सब एक ही है चीन जापान थाईलैंड म्यांमार बहुत सारे देशो में भगवान् बुद्ध की पूजा की जाती है सभी उन्ही को अपना भगवान मानते है तो वह सब क्या दलित है या सिर्फ भारत में भगवान् बुद्ध को पूजने वाले दलित है जिसमे भगवान् बुद्ध खुद एक छत्रिय राजा थे

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August 27, 2016 at 3:12 am

hiii am ChandraVeer Singh from Rajasthan me santi or gyan ki khoj k liy bodh sangh me jana chahta hu but Mujhe kisi sangh ki jankari nhi h please please help me n. 9252734538

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November 20, 2016 at 12:56 pm

Mr. Chandra veer ,plz Visit Vipasana Jaipur For 10 Days course ,ये कोर्स करिये बहुत लाभदायक है बहुत शान्ति मिलेगी ।

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Essay on Gautam Buddha in Hindi | महात्मा गौतम बुद्ध पर निबंध हिन्दी में | Lord Buddha Essay in Hindi

By: Ramesh Chauhan

प्रस्तावना – Essay on Gautam Buddha in Hindi | महात्मा गौतम बुद्ध पर निबंध हिन्दी में | Lord Buddha Essay in Hindi

भगवान बुद्ध का जन्म , भगवान बुद्ध का बाल्यकाल, भगवान बुद्ध की दयालुता, भगवान बुद्ध का वैवाहिक जीवन, भगवान बुद्ध द्वारा सत्‍य की खोज , essay on gautam buddha in hindi | essay on mahatma buddha in hindi | gautam buddha par nibandh video.

 ईश्वर के अनेक अवतार हुए हैं,  इन्हीं अवतारों में भगवान राम, भगवान कृष्ण की ही भांति एक नाम और आता है वह है भगवान बुद्ध की । भगवान बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की । पूरे विश्व को ज्ञान और ध्यान का महत्व समझाया । भगवान गौतम बुद्ध को ‘लाइट ऑफ एशिया’ के नाम से पूरे विश्व में जाना जाता है । भगवान बुद्ध एक प्रखर अध्यात्मवादी थे।

यहाँ पढ़ें: Essay on Train Journey in Hindi

भगवान गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व नेपाल की तराई के लुम्बिनी में हुआ था। इनके पिता का नाम शुद्धोधन एवं माता का नाम माया देवी था । इनके पिता कपिलवस्तु राज्य के शासक थे । इनकी माता माया देवी इनके जन्‍म लेते ही दुनिया छोड़ कर चली गई, जिससे उनका पालन-पोषण उनकी विमाता गौतमी देवी ने किया । भगवान बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था । इनके जन्‍म के समय ही राज्‍य ज्‍योतिषि इनके महान संत होने की भविष्‍य कर रखी थी जो भविष्य में अक्षरशः: सत्य हुआ ।

Essay on Gautam Buddha in Hindi

यहाँ पढ़ें: Essay On Fuel Conservation In Hindi

भगवान बुद्ध बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि के थे । कई ज्ञान उनको उनके शिक्षक के पढ़ाने से पहले पता होता था इस पर उनके शिक्षक आश्चर्यचकित रह जाते थे । बालक सिद्धार्थ एक राजकुमार थे , उनका पालन-पोषण पूरे राजकीय ठाट-बाट से होता था । उनको सभी प्रकार के ऐशो-आराम की सुविधा दी जा रही थी किन्तु उनका मन सांसारिक भोग विलास में नहीं लगता था । इस बात से उनके पिता काफी चिंतित रहा करते थे । बालक सिद्धार्थ अंतर्मुखी रहा करते थे, उन्हें अकेले में रहना और आत्म चिंतन करना बेहद पसंद था । उनके मन में एक प्रश्‍न घर कर गया था कि लोग मरते क्यों हैं ?

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भगवान बुद्ध बचपन से दयालु प्रकृति के थे । एक राजकुमार होकर भी उनका मन शिकार करने में नहीं लगता था हालांकि वह अस्त्र चलाने में निपूर्ण थे । इसके विपरीत वह शिकार करने के खिलाफ रहा करते थे । वह अक्सर  हमउम्र चचेरे भाई देवव्रत को शिकार करने से रोकते थे । एक बार देवव्रत द्वारा शिकार में घायल किए हंस को सेवा करने बचाया । बाल्यकाल की यही स्वभाव उन्‍हें भविष्य में भगवान बुद्ध बनाया ।

बालक सिद्धार्थ के सांसारिक विरक्ति के स्वभाव से उनके पिता चिंतित रहा करते थे । वह उन्‍हें सांसारिक मोह-माया के पाश में बांधने का सतत प्रयास किया करते थे । इसी प्रयास उन्होंने सिद्धार्थ का शीघ्रता से विवाह कर दिया । उनका विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी के साथ हुआ । पिता चाहते थे कि सिद्धार्थ  जल्‍दी ही पारिवारिक मोह-माया में फंस जाये, ईश्वर करे उन्हें शीघ्र ही संतान की प्राप्ति हो जिससे वह संतान मोह में पड़ कर विरक्ति भाव से अलग हो ।

ईश्‍वरी प्रेरणा से सिद्धार्थ को शीघ्र एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु यह क्‍या सिद्धार्थ पुत्र जन्म के बाद भी खुश नहीं हुए उनका मन संसारिकता के प्रति खिन्‍न ही रहा करते थे और इसी खिन्नता में उन्होंने एक दिन रात सोते हुए अपनी पत्नी और अपने पुत्र को छोड़ कर घर से निकल गए ।

यहाँ पढ़ें: Essay on Lord Hanuman in Hindi

घर छोड़ते ही युवा सिद्धार्थ बाल्यकाल से मन में पल रहे प्रश्‍न- लोग दुखी क्यों होते हैं?, लोग बुढ़े क्यों होते हैं? लोगों की मृत्यु क्यों होती है? आदि के उत्तर खोजने का उद्यम करने लगा । इस प्रयास में वह एक भिखारी की तरह गांव-गांव जंगल-जंगल भटकने लगे ।  जंगलों में बैठकर घंटों ध्यान लगाया करते थे किन्तु उनको अपने प्रश्नों का जवाब नहीं मिला तपस्या करते हुए उन्होंने अपने शरीर को बहुत कष्ट दिया करते थे जिससे शरीर रुग्ण और कमजोर रहने लगा इसके बाद भी उन्हें  अपने प्रश्नों का जवाब नहीं मिला ।

अपने प्रश्‍नों के उत्‍तर पाने अधीर हो रहे थे । एक बार गया के बोधि वृक्ष के नीचे ध्‍यान लगाए बैठे थे अचानक उन्हें आत्मबोध हुआ । उन्हें ऐसा लगने लगा उनके मन में पल रहे सारे प्रश्नों का उत्‍तर उन्हें अब मिल चुका है । इस ज्ञान प्राप्ति के बाद अब सिद्धार्थ सिद्धार्थ नहीं बल्कि अब उनका परिचय गौतम बुद्ध के रूप में होने लगा ।

बोधि वृक्ष के नीचे मिले ज्ञान को गौतम बुद्ध दुनिया को बांटने लगे । उन्होंने लोगों को सत्‍य और अहिंसा के पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया । उन्होंने बताया कि लोगों दुखों का कारण उनके मन की इच्छाएं ही हैं जो तृप्त नहीं होती । वे लोगों को अपनी इच्छाओं का दमन करने की प्रेरणा देते । अपनी शिक्षाओं से वे लोगों दुख दर्द को कम किए करते इससे प्रभावित होकर लाखों लोग उनके अनुयायी हो गए जिससे बौद्ध धर्म की रचना हुई, जो आज भी अनवरत चल रहा है ।

अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर निबंध

reference Essay on Gautam Buddha in Hindi

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A Hindi content writer. Article writer, scriptwriter, lyrics or songwriter, Hindi poet and Hindi editor. Specially Indian Chand navgeet rhyming and non-rhyming poem in poetry. Articles on various topics especially on Ayurveda astrology and Indian culture. Educated best on Guru shishya tradition on Ayurveda astrology and Indian culture.

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महात्मा गौतम बुद्ध (Mahatma Gautama Buddha)

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महात्मा गौतम बुद्ध पर निबंध

महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के महाराजा शुद्धोदन के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम महारानी माया था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। जन्म के कुछ समय बाद माता के देहान्त हो जाने के कारण बालक सिद्धार्थ का लालन-पालन विमाता प्रज्ञावती के द्वारा हुआ। इनका नाम सिद्धार्थ इसलिए रखा गया क्योंकि इनके पिता के संतान प्राप्ति की कामना इन्हीं के जन्म से पूरी हुई थी। राजा शुद्धोदन अपने इस इकलौते पुत्र के प्रति अपार स्नेह रखते थे। सिद्धार्थ दयालु और दार्शनिक प्रवृत्ति का था। वह अल्पभाषी तथा जिज्ञासु स्वभाव के साथ-साथ सहानुभूतिपूर्ण सहज स्वभाव का जनप्रिय बालक था। वह लोक जीवन जीते हुए परलोक की चिन्तन रेखाओं से घिरा हुआ था। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि सिद्धार्थ जैसे बेटे का महाराज के यहां जन्म होना उनके लिए सौभाग्य की बात है और यह उनके कुल का नाम रोशन करेगा। सिद्धार्थ बचपन से ही बहुत गम्भीर और शान्त स्वभाव का था। उम्र बढ़ने के साथ-साथ वह गंभीर व उदासीन होता चला गया। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ की यह दशा देख आदेश दिया कि उसे एकान्तवास में ही रहने दिया जाए। सिद्धार्थ को एक एकान्त जगह रखा गया। उसे किसी से कुछ बात करने या कहने की मनाही कर दी गयी। केवल खाने-पीने, स्नान, वस्त्र आदि की सारी सुविधाएँ दी गयीं। सेवकों और दसियों को यह आदेश दिया गया कि वे कुछ भी इधर-उधर की बातें उससे न करें। एकान्तवास में रहते हुए सिद्धार्थ संसार के रहस्य के प्रति तथा प्रकृति के कार्यों के प्रति जिज्ञासु हो गया था। वह सुख-सुविधाओं के प्रति कम विरक्ति के प्रति अत्यधिक उन्मुख और आसक्त हो चला था। सिद्धार्थ का जिज्ञासु मन अब और मचल गया। उसने बाहर जाने, देखने, घूमने और प्रकृति के पास से देखने की इच्छा प्रकट की। राजा शुद्धोदन ने उनकी यह इच्छा जान उन्हें राजभवन में लौट आने का आदेश दे दिया लेकिन राजभवन में लौटने पर सिद्धार्थ की चिन्तन रेखाएं बढ़ती ही चली गयीं। महाराजा शुद्धोदन को राज ज्योतिषी ने यह साफ-साफ कह दिया था कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या फिर विश्व का सबसे बड़े किसी धर्म का प्रवर्त्तक बनेगा। इस भविष्यवाणी से राजा शुद्धोदन सावधान हो गये। सिद्धार्थ कहीं संन्यासी या वैरागी न बन जाए, इसके लिए उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से किया गया। इनसे इन्हें एक बेटा उत्पन्न हुआ। उसका नाम राहुल रखा गया। राजसी ठाट-बाट, सुन्दर पत्नी का प्रेम व बेटे राहुल का वात्सल्य भी इनकी गंभीरता व उदासीनता को कम न कर सके। एक दिन सिद्धार्थ ने शहर घूमने की तीव्र इच्छा जतायी। सारथी उन्हें रथ में बैठाकर नगर से होते हुए कुछ दूर तक ले गया था कि रास्ते में उन्होंने देखा कि कुछ लोग एक शव को श्मशान घाट ले जा रहे हैं। उन लोगों में से कुछ लोगों की अश्रुधारा बह रही थी और चेहरे लटके हुए थे। जिज्ञासु सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा कि ये लोग क्या कर रहे हैं ? सारथी ने बताया ये लोग मुर्दा ले जा रहे हैं। सिद्धार्थ ने पूछा मुर्दा क्या होता है ? सिद्धार्थ के यह पूछने पर सारथी ने बताया 'इस शरीर से आत्मा (सांस) के निकल जाने पर यह शरीर मिट्टी के समान हो जाता है जिसे मुर्दा कहा जाता है।'' इस पर सिद्धार्थ ने पुनः प्रश्न किया क्या मैं भी मुर्दा हो जाऊँगा ? इसी तरह रोगी और बूढ़े को देख सारथी से पूछने पर सिद्धार्थ ने यही पाया था कि उसे भी एक दिन रोग और बुढ़ापा के घेरे में आना पड़ेगा। इससे सिद्धार्थ का मन विराग से भर उठा। इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन ऐसा आया कि रात को सोते हुए अपनी धर्मपत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड़ सिद्धार्थ संन्यास के मार्ग पर चल पड़े। सिद्धार्थ घर-परिवार छोड़कर शान्ति और सत्य की खोज में वर्षों भटकते रहे। घोर तपस्या के कारण उनका शरीर कांटा हो गया। वे गया में वट वृक्ष के नीचे समाधिस्थ हो गये। बहुत समय के बाद अकस्मात उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। ज्ञान प्राप्त होने के कारण वे महात्मा बुद्ध कहलाने लगे। इसके बाद वह बौद्ध-धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म की शिक्षा और उपदेश के द्वारा ज्ञान दिया कि अहिंसा परमधर्म है। सत्य की विजय होती है। मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। बुद्ध ने धर्म का तीन भागों में वर्गीकरण किया है, धर्म, सधर्म व अधर्म। धर्म की व्याख्या करते हुए बुद्ध कहते हैं कि 'जीवन की पवित्रता बनाए रखना धर्म है। पवित्रता तीन प्रकार की होती है। शारीरिक, मानसिक और वाणी की पवित्रता। एक आदमी जीव हिंसा, चोरी और काम मिथ्याचार से विरक्त रहे इसे ही शारीरिक पवित्रता कहते हैं। काम द्वेष आलस्य की उत्पत्ति को जानना और भविष्य में उनकी उत्पत्ति को रोकना मानसिक पवित्रता होती है। झूठ न बोले, व्यर्थ की बातचीत न करें, चुगली न करें, कटु न बोलें, यही वाणी की पवित्रता है। जीवन में पूर्णता प्राप्त करना धर्म है। सभी विकारों से मुक्त होकर चित्त निर्मल कराना मन की पूर्णता कहलाती है। निर्माण की प्राप्ति के लिए भगवान बुद्ध ने तीन बातों को आधार बताया। इनमें पहली में कहा गया किसी आत्मा का सुख नहीं बल्कि प्राणी का सुख हो। यह सुख इस जन्म में हो तथा राग-द्वेष से मुक्त हो। बुद्ध ने तृष्णा को दुःख का मूल कारण बताते हुए उसके त्याग को धर्म कहा है। तृष्णा त्यागने का अभिप्राय लोभ के वशीभूत न होना है। वे सबसे बड़े धन संतोष को मानते थे लेकिन उनका यह भी कहना था कि बेचारगी और परिस्थिति के सामने सर झुकना संतोष नहीं कहलाता। भगवान बुद्ध के अनुसार प्राणी का शरीर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नामक चार महाभूतों का परिणाम है और उनका अलग होना ही मृत्यु है। अनेक तत्वों से मिली वस्तु अनित्य है। जो कुछ है वह प्रतिक्षण बदल रहा है। अनित्यता हमें आसक्ति के प्रति सचेत करके हमारे दुःखों को कम करती है। कर्म को मानव जीवन के नैतिक संस्थान का आधार मानना ही धर्म है। उनकी मान्यता थी कि कुशल कर्म करो ताकि उसे नैतिक कर्मों का सहारा मिले और उससे मानवता लाभान्वित हो। धर्म को समझने के लिए अधर्म की जानकारी होना भी जरूरी है। सधर्म के बारे में उनका कहना था कि मन के मैल को दूर करके उसे निर्मल बनाना ही सधर्म है। मन शुद्ध है तो शुद्ध वाणी निकलेगी और अच्छे कार्य होंगे।

महात्मा बुद्ध पर निबन्ध | Essay for Kids on Mahatma Budha in Hindi

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महात्मा बुद्ध पर निबन्ध | Essay for Kids on Mahatma Budha in Hindi!

भारत की पवित्र भूमि पर सत्य, अहिंसा ओर सादगी का संदेश देने वाले धर्म प्रवर्त्तक महापुरुषों में एक पूजनीय नाम है महात्मा बुद्ध । उन्होंने जिस ज्ञान का प्रचार किया, वही आगे चलकर बौद्ध धर्म कहलाया, जिसमें जीवन की बुराइयों से मुका होकर जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त करने का उपाय बताया गया है ।

2. जन्म और शिक्षा:

आज से करीब तीन हजार वर्ष पूर्व नेपाल के लुम्बिनी नामक स्थान पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था । उनके पिता थे महाराज शुद्धोदन तथा माता थीं महारानी महामाया । गौतम बुद्ध का नाम बचपन में सिद्धार्थ रखा गया ।

कुछ दिनों बाद माता का देहांत हो जाने के कारण सिद्धार्थ का पालन-पोषण उनकी मौसी गौतमी करने लगी जिससे उनका नाम गौतम पड़ गया । बचपन में ही सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा से हुआ । उनकी शिक्षा का प्रबंध राजमहल में ही कर दिया गया किन्तु उनका मन न तो शिक्षा पाने में, न राजकर्म में और न ही राग-रंग में लगता था ।

बचपन से ही गौतम एकांतप्रिय थे । वे सदा यही सोचा करते थे कि जीवन में नाना प्रकार के कष्ट क्यों होते हैं और कोई प्राणी मरता क्यों है ? इन्हीं प्रश्नों से व्याकुल होकर वे एक रात अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को सोता हुआ छोड्‌कर चुपचाप राजमहल से निकल गये और राजगृह नामक स्थान पर पहुँच गये ।

3. कार्यकलाप:

ADVERTISEMENTS:

राजगृह पहुँचने पर वहाँ के राजा बिम्बिसार (सम्राट् चन्द्रगुप्त के पुत्र) ने उन्हें अपने महल में रहने का अनुरोध किया किन्तु उन्हें किसी सुख का लोभ नहीं था । वे सत्य की खोज में निकले थे ।

अत: गया पहुंचकर एक वट-वृक्ष के नीचे उन्होंने छ: वर्षों तक कठोर तपस्या की, जहाँ बैशाखी पूर्णिमा के दिन उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ । इसी कारण उस वट-वृक्ष का नाम बोधि वृक्ष पड़ गया और गौतम उस दिन से गौतम बुद्ध बन गये ।

स्थान का नाम भी ‘बोधगया’ हो गया । इसके पश्चात् वे वाराणसी के समीप सारनाथ पहुँचे और अपने ज्ञान का प्रचार आरम्भ किया । उन्होंने बताया कि लोभ, लालच, इच्छा आदि ही सभी दुखों के कारण हैं और अच्छे विचार, दृढ़संकल्प (Determination) बिल्लाह ।

अच्छा बोलने, अच्छे कर्म और अच्छे उपाय से सभी कष्ट समाप्त होते हैं । ये उपदेश सुनने में जितने सरल हैं, प्रयोग में उतने ही कठिन भी हैं । वे एक बार वैशाली की नगरवधू आम्रपाली के अतिथि भी रहे । उनकी शिक्षाएँ उनके शिष्यों ने ‘धम्मपद’ नामक ग्रथ में संकलित की । उनका निर्वाण 80 वर्ष की अवस्था में हुआ ।

4. उपसंहार:

आज महात्मा बुद्ध हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी शिक्षाएँ बौद्ध धर्म के रूप में चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका सहित संसार के अनेक देशों में याद की जाती हैं । भारत में बोधगया पावापुरी तथ दिल्ली-गुड़गांव मार्ग पर बुद्धजयंती पार्क और बुद्ध पूर्णिमा का त्यौहार सदा महात्मा बुद्ध की याद दिलाते रहेंगे ।

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गौतम बुद्ध - जीवन और शिक्षाएं [एनसीईआरटी यूपीएससी के लिए प्राचीन भारतीय इतिहास नोट्स]

गौतम बुद्ध की शिक्षाएं जीवन के मध्य मार्ग, ज्ञानोदय के लिए आठ गुना मार्ग और चार महान सत्य के इर्द-गिर्द घूमती हैं। यह लेख भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा के लिए बुद्ध, बुद्ध के दर्शन और गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर एनसीईआरटी के प्रासंगिक नोट्स प्रदान करेगा।

एनसीईआरटी ने यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के महत्वपूर्ण विषयों पर नोट जारी किए ये नोट अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे बैंकिंग पीओ, एसएससी, राज्य सिविल सेवा परीक्षा आदि के लिए भी उपयोगी होंगे।

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Download the e-book now, गौतम बुद्ध – यूपीएससी के लिए तथ्य.

  • बौद्ध धर्म की स्थापना गौतम बुद्ध ने की थी।
  • बुद्ध का जन्म 566 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु (वर्तमान नेपाल में) के पास लुंबिनी में राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में हुआ था।
  • वह शुद्धोधन और महामाया के पुत्र थे। शुद्धोधन शाक्य वंश का प्रमुख था। इसी कारण बुद्ध को ‘शाक्यमुनि’ भी कहा जाता था।
  • या तो उन्हे जन्म देने के बाद या सात दिनों के बाद उसकी माँ की मृत्यु हो गई। सिद्धार्थ का पालन-पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया था। इससे उनका नाम ‘गौतम’ पड़ा।
  • उनका विवाह यशोधरा से हुआ था और उनका एक पुत्र राहुला था।
  • उन्होंने तपस्वी बनने के लिए 29 वर्ष की आयु में अपना घर छोड़ दिया। इस घटना को महाभिष्क्रमण कहते हैं।
  • बुद्ध के मन में त्याग का विचार तब आया जब उन्होंने मनुष्य की चार अलग-अलग अवस्थाओं को देखा – बीमार आदमी, बूढ़ा, लाश और तपस्वी।
  • बुद्ध सात साल तक भटकते रहे और 35 साल की उम्र में निरंजना नदी के तट पर एक पीपल के पेड़ (अंजीर के पेड़ / फिकस धर्मियोसा) के नीचे ध्यान करते हुए उरुवेला में ज्ञान प्राप्त किया। इस पेड़ को ‘बोधि वृक्ष’ के रूप में जाना जाने लगा और यह स्थान बोधगया (बिहार में) बन गया।
  • उन्होंने अपना पहला उपदेश वाराणसी के पास सारनाथ में दिया था। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन / धम्मचक्कप्पवत्ताना कहा जाता है।
  • कुशीनगर (उत्तर प्रदेश में) में एक साल के पेड़ के तहत 483 ईसा पूर्व में उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहा जाता है।
  • ‘बुद्ध’ शब्द का अर्थ है ‘प्रबुद्ध’।
  • बुद्ध के महत्वपूर्ण समकालीन महावीर जैन, राजा प्रसेनजित, बिंबिसार और अजातशत्रु थे।

बौद्ध दर्शन/बुद्ध की शिक्षाएं

शिक्षण का उल्लेख नीचे किया गया है:

  • यह बीच का रास्ता सिखाता है, जिसमें कृपा और सख्त संयम जैसे कठोर कदमों को त्यागना शामिल है।
  • बौद्ध धर्म में चार महान सत्य (आर्या सत्य) हैं:

• बौद्ध धर्म में अष्टांगिक मार्ग है:

  • बौद्ध धर्म के त्रि रत्न हैं: बुद्ध, धम्म और संघ। विवरण नीचे उल्लिखित हैं:
  • बुद्ध को ईश्वर या आत्मा पर विश्वास नहीं था।
  • कर्म और अहिंसा पर जोर दिया।
  • वे वर्ण व्यवस्था के विरूद्ध थे। बुद्ध पाली में पढ़ाते थे।
  • बौद्ध धर्म भारत के बाहर कई देशों में फैल गया। चीन ने पहली शताब्दी ईस्वी में बौद्ध धर्म को अपनाया था। [/su_box

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बौद्ध धर्म का इतिहास निबंध संस्थापक शिक्षाएं नियम Buddhism History Founder Teaching Rules Essay In Hindi

बौद्ध धर्म का इतिहास निबंध संस्थापक शिक्षाएं नियम Buddhism History Founder Teaching Rules Essay In Hindi महावीर स्वामी की तरह ही छठी शताब्दी ईसा पूर्व भारत में एक महान विभूति का जन्म हुआ.

इस विभूति ने भी महावीर की तरह ही उस युग में फैली धर्म ग्लानि, रूढ़ीवाद तथा सामाजिक जटिलता के विरुद्ध आवाज उठाई और भारत की जनता को जीवन का सही मार्ग बताया. यह विभूति कोई और नही, महात्मा बुद्ध थे.

बौद्ध धर्म का इतिहास निबंध Buddhism History Founder Essay In Hindi

बौद्ध धर्म का इतिहास निबंध संस्थापक शिक्षाएं नियम Buddhism History Founder Teaching Rules Essay In Hindi

गौतम बुद्ध का जीवन परिचय (gautam buddha life history in hindi)

महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. उतरी बिहार स्थित कपिलवस्तु गणराज्य के शाक्यवंशीय क्षत्रिय कुल में हुआ था. गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था.

अपने कुल का गौतम गौत्र होने के कारण इन्हें गौतम भी कहा जाता था. इनके पिता का नाम शुद्धोदन एवं माता का नाम मायादेवी था. जब मायादेवी अपने पिता के यहाँ जा रही थी, मार्ग में लुम्बिनी वन में बुद्ध का जन्म हुआ.

दुर्भाग्यवश इनके जन्म के सात दिन बाद ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था. अतः उनका लालन पोषण उनकी विमाता और मौसी प्रजापति गौतमी ने किया.

बाल्यावस्था से ही बुद्ध विचारशील और एकांतप्रिय थे वे बड़े करुणावान थे. संसार में लोगों के कष्टों को देख उनका ह्रद्य दया से भर जाता था. यधपि उनके पिता ने सभी प्रकार से क्षत्रियोचित शिक्षा दीक्षा उन्हें दिलाई थी.

और उसमें वे प्रवीण हो गये थे. फिर भी बुद्ध का मन सांसारिक बातों में नही लगता था. वे इनकी ओर से उदास रहते थे. पुत्र की ऐसी मनोवृति देखकर शुद्धोदन ने सोलह वर्ष की उम्रः में ही सिद्धार्थ का यशोधरा नामक सुंदर राजकुमारी से विवाह कर दिया था.

लगभग 10 वर्ष तक गृहस्थी जीवन व्यतीत करने पर भी सिद्धार्थ के मन में इस संसार के इस जीवन की सुख दुःख की समस्याएं बराबर उलझन पैदा करती रही. सिद्धार्थ का वैरागी मन इस संसार में नही लगा.

इस वैराग्य भावना के फलस्वरूप एक दिन अपने पुत्र, पत्नी, पिता और सम्पूर्ण राज्य वैभव को छोड़कर वे ज्ञान की खोज में निकल गये. जीवन की इस घटना को बौद्ध साहित्य में महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है.

महाभिनिष्क्रमण के उपरान्त वे सात वर्ष तक सन्यासी जीवन व्यतीत करते रहे. सबसे पहले वे वैशाली के आलार-कालार तपस्वी के पास ज्ञानार्जन के लिए गये, किन्तु वह उनकी ज्ञान पिपासा शांत नही हो सकी.

अतः वे राजगृह ब्राह्मण आचार्य उद्र्क रामपुत के पास गये किन्तु यह आचार्य भी उन्हें संतोष नही दे सका.तब सिद्धार्थ वहां से चले गये और उरुवेला वन में पहुचे. वहां वे कौडिल्य आदि पर अपने पांच साथियों के साथ उरुवेला के निकट निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या करने लगे.

गौतम बुद्ध विचार (Gautam Buddha Thoughts)

तपस्या के कारण उनका शरीर सुखकर काँटा हो गया, फिर भी उनका उद्देश्य सिद्ध नही हुआ तब उन्होंने तपस्या छोड़कर आहार लेने का निश्चय किया.

गौतम बुद्ध में यह परिवर्तन देखकर उनके साथी उन्हें छोड़कर चले गये किन्तु इससे ये विचलित नही हुए उन्होंने ध्यान लगाने का निश्चय किया. वे वही एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान अवस्था में बैठ गये.

सात दिन ध्यान मग्न अवस्था में रहने के बाद बैशाख माह की पूर्णिमा के दिन उन्हें आंतरिक ज्ञान का बोध हुआ और तभी से वे बुद्ध कहलाने जाने लगे.

पीपल का वह वृक्ष जिसके नीचे सिद्धार्थ को बोध लाभ हुआ, वह बोधिवृक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ. ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात सबसे पहले बौद्ध गया में बुद्ध ने अपने पहले ज्ञान का उपदेश तपस्सु और मल्लिक नामक दो बंजारों को दिया.

गौतम बुद्ध के उपदेश और शिक्षाएं (Gautam Buddha’s teachings and teachings) 

इसके बाद गौतम बुद्ध अपने ज्ञान एवं विचारों को जनसाधारण तक पहुचाने के उद्देश्य से निकल पड़े और सारनाथ पहुचे. वही उन्होंने उन पांच साथियों से सम्पर्क किया, जो उन्हें छोड़कर चले गये थे.

बुद्ध ने उन्हें अपने ज्ञान की धर्म के रूप में दीक्षा दी. यह घटना बौद्ध धर्म में धर्मचक्रप्रवर्तन कहलाती है. अंत में 80 वर्ष की आयु में 483 ई.पू. गोरखपुर के निकट कुशीनगर नामक स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपना शरीर त्याग दिया. बुद्ध के शरीर त्यागने की घटना को महापरिनिर्वाण कहते है.

महावीर स्वामी की तरह ही महात्मा बुद्ध भी मानवता के शिक्षक थे. उन्होंने अपने उपदेशों से दुःख से पीड़ित लोगों को मुक्त कर सतत शांति प्राप्त हो, ऐसा मार्ग बताने का प्रयत्न किया. दार्शनिक चिन्तन का आधार चार आर्य सत्य है.

बौद्ध धर्म की शिक्षा (Teachings of Buddhism) 

  • संसार दुखमय है संसार में जन्म मरण संयोग, वियोग लाभ हानि आदि सभी दुःख ही दुःख है.
  •  दुःख का कारण- सभी प्रकार के दुखों का कारण तृष्णा या वासना है.
  • दुःख दमन- तृष्णा के निवारण से या लालसा के दमन से दुःख का निराकरण हो सकता है.
  •  दुःख निरोध मार्ग- दुखों पर विजय विजय प्राप्त करने का मार्ग है और वह अष्टांगिक मार्ग या मध्यम मार्ग है.

गौतम बुद्ध की 8 शिक्षाएं/ उपाय (8 teachings / ideas of Gautam Buddha)

महात्मा बुद्ध ने बताया कि संसारिक वस्तुओं को भोगने की तृष्णा ही आत्मा को जन्म मरण के बंधन में जकड़े रखती है. अतः निर्वाण प्राप्ति के लिए मनुष्य को अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना चाहिए.

अष्टांगिक मार्ग जीवन यापन का बिच का रास्ता हो, इसलिए इसको मध्यम मार्ग भी कहा जाता है. इसमे निर्वाण प्राप्ति के लिए न तो कठोर तपस्या को उचित बताया गया और ना ही संसारिक भोग विलास में डूबा रहना उचित बताया है. अष्टांगिक मार्ग के आठ उपाय निम्नलिखित है.

  • सम्यक दृष्टि सत्य -असत्य, पाप-पुण्य में भेद करने से ही इन चार सत्यों पर विश्वास पैदा होता है.
  •   सम्यक संकल्प – दुःख के कारण तृष्णा से दूर रहने का दृढ विचार रखो.
  •   सम्यक वाक् – नित्य सत्य और मीठी वाणी बोलो.
  • सम्यक कर्मान्त – हमेशा सच्चे और अच्छे काम करो.
  •  सम्यक आजीव – अपनी आजीविका के लिए पवित्र तरीके अपनाओं
  • सम्यक प्रयत्न – शरीर को अच्छे कर्मों में लगाने के लिए उचित परिश्रम करो.
  • सम्यक स्मृति – अपनी त्रुटियों को बराबर याद रखकर, विवेक और सावधानी से कर्म करने का प्रयास करो.
  •   सम्यक समाधि – मन को एकाग्र करने के लिए ध्यान लगाया करो.

बौद्ध धर्म में सदाचार के दस नियम (ten rule of virtuous in buddhism)

अपनी शिक्षाओं में बुद्ध ने शील और नैतिकता पर बहुत अधिक बल दिया. उन्होंने अपने अनुयायियों को मन वचन और कर्म से पवित्र रहने को कहा. इसके लिए उन्होंने निम्नलिखित दस शील या नैतिक आचरण का पालन करने को कहा. इन्हें हम सदाचार के दस नियम भी कह सकते है.

  • अहिंसा व्रत का पालन करना (अहिंसा)
  • झूठ का परित्याग करना (सत्य)
  •  चोरी नही करना (अस्तेय)
  •  वस्तुओं का संग्रह नही करना (अपरिग्रह)
  •  भोग विलास से दूर रहना (ब्रह्मचर्य)
  •  नृत्य और गान का त्याग करना.
  •  सुगन्धित पदार्थों का त्याग करना.
  • असमय भोजन नही करना
  • कोमल शैय्या का त्याग करना और
  • कामिनी कंचन का त्याग करना.

सदाचार के इन नियमों से पांच महावीर स्वामी द्वारा बताएं गये पांच नियमों के अनुरूप अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के है. बुद्ध के अनुसार इन पांचो का पालन करना सभी गृहस्थियों और उपासकों के लिए आवश्यक है.

इसका पालन करते हुए संसार का त्याग नही करने पर भी मनुष्य सन्मार्ग की ओर बढ़ सकता है लेकिन जो व्यक्ति संसार की मोहमाया को छोड़कर भिक्षु जीवन बिताता है उसके लिए उपर्युक्त नियमों का पालन करना आवश्यक है.

बौद्ध धर्म के सिद्धांत (Buddhist doctrines)

महात्मा बुद्ध ने अपने इन सिद्धांतों का प्रतिपादन उस समय में प्रचलित रूढ़ीवाद का तर्कयुक्त खंडित करते हुए किया और स्वतंत्र दार्शनिक चिन्तन का प्रतिपादन किया. बुद्ध तर्क पर बहुत बल देते थे.

अंध श्रद्धा में उनका विश्वास नही था. अतः उन्होंने वेदों की प्रमाणिकता का खंडन किया. वेदों का खंडन करने के साथ ही इन्होने ईश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में नही माना. इसी कारण कुछ लोगों ने बुद्ध को नास्तिक भी कहा है

महात्मा बुद्ध आत्मा की अमरता में विश्वास नही करते थे. उनके लिए आत्मा शंकास्पद विषय था. अतः आत्मा के बारे में न उन्होंने यह कहा कि आत्मा है और न उन्होंने यह माना कि आत्मा नही है.

बुद्ध कर्मवाद के विचारों को मानते थे. उनका कहना था कि मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है.

मनुष्य का यह लोक और परलोक कर्म पर निर्भर है. कर्म फल भोगने के लिए मनुष्य का आवागमन होता है. बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास करते थे.

वे कहते थे कि मनुष्य के कर्म के अनुसार ही उसका पुनर्जन्म होता है किन्तु बुद्ध का मानना था कि यह पुनर्जन्म आत्मा का नही अहंकार का होता है.

जब मनुष्य की वासना तृष्णाऐ नष्ट हो जाती है तो अहंकार भी नष्ट हो जाता है. और मनुष्य पुनर्जन्म से निकलकर निर्वाण प्राप्त करता है.

अहिंसा बौद्ध धर्म का मूल मन्त्र है. बुद्ध ने बताया कि प्राणिमात्र को पीड़ा पहुचाना महापाप है. फिर भी महावीर की भांति अहिंसा पर बुद्ध ने अधिक बल नही दिया,

बल्कि समय और परिस्थति को देखते हुए इस सिद्धांत को व्यवहारिक रूप प्रदान किया. बुद्ध ने अंतःकरण की शुद्धि पर भी बहुत बल दिया उनका कहना था कि तृष्णा अंतःकरण से पैदा होती है.

बौद्ध धर्म का अंतिम लक्ष्य निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करना है. निर्वाण शब्द का अर्थ बुझना होता है. अतः महात्मा बुद्ध का कहना था कि मन में पैदा होने वाली तृष्णा या वासना की अग्नि को बुझा देने पर निर्वाण प्राप्त हो सकता है.

इस तरह जैन व बौद्ध मत ने वैदिक धर्म में कालान्तर में शामिल हुई रुढियों को दूर कर उसमे नवीनता शामिल करने का कार्य किया.

बौद्ध संघ Buddha Dharma Sangha In Hindi

महात्मा बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली गई, धीरे धीरे उनके शिष्यों का दल तैयार हो गया. उन्होंने अपने शिष्यों के लिए बौद्ध संघ की स्थापना की. संघ ऐसे बौद्ध भिक्षुओं की एक संस्था थी, जो धम्म के शिक्षक बन गये.

ये बौद्ध भिक्षु एक सादा जीवन व्यतीत करते थे. उनके जीवनयापन के लिए अत्यावश्यक वस्तुओं के अलावा कुछ नहीं होता था. वे दिन में एक बार भोजन करते थे. इसके लिए वे उपासकों से भोजन दान प्राप्त करने के लिए एक कटोरा रखते थे, चूँकि वे दान पर निर्भर थे, इसलिए इन्हें  भिक्षु  कहा जाता था.

महिलाओं को संघ में सम्मिलित करना – प्रारम्भ में केवल पुरुष ही संघ में सम्मिलित हो सकते थे, परन्तु बाद में महिलाओं को भी संघ में सम्मिलित होने की अनुमति दे दी गई. बौद्ध ग्रंथों से ज्ञात होता हैं कि अपने प्रिय शिष्य के आनन्द के अनुरोध पर बुद्ध ने महिलाओं को संघ में सम्मिलित होने की अनुमति प्रदान कर दी.

बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गोतमी संघ में सम्मिलित होने वाली प्रथम भिक्षुणी थी, संघ में सम्मिलित होने वाली कई स्त्रियाँ धम्म की उपदेशिकाएं बन गई. कालांतर में वे थेरी बनीं, जिसका अर्थ हैं- ऐसी महिलाएं जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो.

बुद्ध ने अनुयायियों का विभिन्न सामाजिक वर्गों से सम्बन्धित होना- बुद्ध के अनुयायी विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित थे. इनमें राजा, धनवान, गृहपति और सामान्य जन कर्मकार, दास, शिल्पी सभी सम्मिलित थे.

संघ में सम्मिलत होने वाले भिक्षुओं तथा भिक्षुणीओं को बराबर माना जाता था. क्योकि भिक्षु बनने पर उन्हें अपनी पुरानी पहचान त्याग देना पड़ता था.

संघ की संचालन पद्धति- संघ की संचालन पद्धति गणों और संघों की परम्परा पर आधारित थी. इसके अंतर्गत लोग वार्तालाप के द्वरा एकमत होने का प्रयास करते थे. एकमत न होने पर मतदान द्वारा निर्णय लिया जाता था.

बौद्ध धर्म का इतिहास | Buddhism History In Hindi

बौद्ध धर्म विश्व के कई देशों का मुख्य धर्म हैं. गौतम बुद्ध द्वारा इसे शुरू किया गया था. आज के आर्टिकल में हम बौद्ध धर्म के इतिहास को सरल भाषा में जानेगे. 

बौद्ध धर्म के तीन आधार स्तम्भ है. बुद्ध (Buddhism के संस्थापक), धम्म (गौतम बुद्ध के उपदेश) और संघ (बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणिओं का संगठन). जिस तरह महावीर स्वामी ने जैन धर्म की स्थापना की, उसी काल में भारत में एक नयें पंथ की शुरुआत हुई

जो कालान्तर में बौद्ध धर्म अर्थात बुद्ध का धर्म कहलाया. इस आर्टिकल में हम गौतम बुद्ध का जीवन परिचय, उनकी शिक्षाएं धम्म, चार आर्य सत्य, उनके उपदेश, संघ, बौद्ध धर्मग्रंथ, त्रिपिटक, तथा महासंगीतियों का अध्ययन यहाँ करेगे.

गौतम बुद्ध या सिद्दार्थ का जन्म ५६३ ई.पू में नेपाल की तराई में स्थित कपिलवस्तु के समीप लुम्बिनी ग्राम में शाक्य क्षत्रिय कुल में हुआ था.

इनके पिता का नाम शुद्धोदन तथा माता का नाम महामाया था. शुद्धोदन कपिलवस्तु के गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे जबकि महामाया कोशल वंश की राजकुमारी थी.

गौतम बुद्ध का जीवन परिचय जीवनी बायोग्राफी (buddha story gautam buddha in hindi)

इनके जन्म के सातवें दिन ही इनकी माता महामाया की मृत्यु हो जाती है, अतः इनका पालन पोषण इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया था, इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था.

बचपन से ही गौतम का ध्यान आध्यात्मिक चिन्तन की ओर था. १६ वर्ष की आयु में इनका विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी से हुआ. २८ वर्ष की आयु में इनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ.

२९ वर्ष की आयु में इन्होने सत्य की खोज के लिए गृह त्याग कर दिया., जिसे बौद्ध धर्म के ग्रंथों में महाभिनिष्क्रमण कहा गया है. बुद्ध ने जीवन से सम्बन्धित चार द्रश्यों से प्रभावित होकर घर का त्याग किया था. वृद्ध व्यक्ति को देखना, रोगी को देखना, मृतक को देखना एवं सन्यासी को देखना.

बुद्ध के गृह त्याग का प्रतीक घोड़ा माना जाता है. इनके घोड़े का नाम कन्थक एवं सारथी का नाम चन्ना था. बुद्ध ने लगातार भ्रमण कर चालीस वर्ष तक उपदेश दिए. उन्होंने सर्वाधिक उपदेश कोशल प्रदेश की राजधानी श्रावस्ती में दिए.

बुद्ध ने अपने उपदेश जनसाधारण की भाषा पालि में दिए. सत्य की खोज में भटकते गौतम बुद्ध ने सर्वप्रथम अलारा कलामा और फिर रुद्र्क रामपुत्र को अपना गुरू मानकार तप किया. 

35 वर्ष की आयु में गया (बिहार) में उरुवेला नामक स्थान पर पीपल वट वृक्ष के नीचे वैशाख पूर्णिमा की रात्रि में समाधिस्थ अवस्था में इनको ज्ञान प्राप्त हुआ. ज्ञान प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ बुद्ध अर्थात प्रज्ञावान कहलाने लगे. 

वह स्थान बोधगया कहलाया, बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया. यहाँ गौतम बुद्ध ने अपनी पांच साथियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, इन्हें बौद्ध धर्म के इतिहास में धर्मचक्रप्रवर्तन कहा गया है.

४८३ ई.पू. में ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने अपना शरीर कुशीनगर में त्याग दिया, जिसे महापरिनिर्वाण कहा गया है. इस स्थान की पहचान पूर्वी उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक गाँव से की जाती है.

बुद्ध की मृत्यु के पश्चात उनके अवशेषों को आठ भागों में बांटकर आठ स्तूपों का निर्माण किया गया. गौतम बुद्ध को तथागत एवं शाक्य मुनि भी कहा जाता है. बौद्धों का सबसे पवित्र त्योहार बुद्ध पूर्णिमा है, जो वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता है.

बौद्ध धर्म में बुद्ध पूर्णिमा के दिन का इसलिए भी महत्व है क्योंकि इसी दिन बुद्ध का जन्म ज्ञान की प्राप्ति एवं महानिर्वाण प्राप्त हुआ था.

धम्म का अर्थ (what is dhamma)

बौद्ध धर्म में धम्म का अर्थ है- बुद्ध की शिक्षाएं. बुद्ध का सार चार आर्य सत्यों में निहित है.

चार आर्य सत्य क्या हैं (what are the four noble truths of buddhism)

बुद्ध के अनुसार जीवन में दुःख ही दुःख है, अतः क्षणिक सुखों को सुख मानना अदूरदर्शीता है. बुद्ध के अनुसार दुःख का कारण तृष्णा है. इन्द्रियों को जो वस्तुएं प्रिय लगती है उनको प्राप्ति की इच्छा ही तृष्णा है और तृष्णा का कारण अज्ञान है.

बुद्ध के अनुसार दुखों से मुक्त होने के लिए उसके कारण का निवारण आवश्यक है. अतः तृष्णा पर विजय प्राप्त करने से दुखों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है.

बुद्ध के अनुसार दुखों से मुक्त होने अर्थात निर्वाण प्राप्त करने के लिए जो मार्ग है, उसे अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है.

बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग (buddhism four noble truths and eightfold path)

  • सम्यक दृष्टि- सत्य और असत्य को पहचानने की शक्ति
  • सम्यक संकल्प- इच्छा व हिंसा रहित संकल्प
  • सम्यक वाणी- सत्य एवं म्रदु वाणी
  • सम्यक कर्म- सत्कर्म, दान, दया, सदाचार, अहिंसा आदि
  • सम्यक आजीव- जीवनयापन का सदाचारपूर्ण एवं उचित मार्ग
  • सम्यक व्यायाम- विवेकपूर्ण प्रयत्न
  • सम्यक स्मृति- अपने कर्मों के प्रति विवेकपूर्ण ढंग से सहज रहना
  • सम्यक समाधि- चित्त की एकाग्रता

निर्वाण बौद्ध धर्म का परम लक्ष्य है जिसका अर्थ है दीपक का बुझ जाना, अर्थात जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो जाना.

बुद्ध के उपदेश व उनका सार हिंदी भाषा में (teachings of gautam buddha in hindi pdf)

बुद्ध ने अपने उपदेशों में कर्म के सिद्धांत पर बहुत बल दिया है. वर्तमान के निर्णय भूतकाल में निर्णय करते है. बुद्ध ने प्रत्येक व्यक्ति को अपने भाग्य का निर्माता माना है. 

उनका कहना था कि अपने पूर्व कर्मों का फल भोगने के लिए मानव को बार बार जन्म लेना पड़ता है. बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व को न ही स्वीकार किया है न ही नकारा है.

बुद्ध ने वेदों की प्रमाणिकता को स्पष्ट रूप से नकारा है. बुद्ध समाज में उंच नीच के कट्टर विरोधी थे. बौद्ध धर्म विशेष रूप से निम्न वर्णों का समर्थन पा सका, क्योंकि वर्ण व्यवस्था की निंदा की गई है.

बौद्ध धर्म में संघ के नियम (buddhism rules)

बुद्ध के अनुयायी दो भागों में विभाजित हुए. भिक्षुक- बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए सन्यास ग्रहण किया उन्हें भिक्षुक कहा गया है. उपासक- गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए बौद्ध धर्म को अपनाने वालों को उपासक कहा गया.

भिक्षु भिक्षुणियों को संघ या परिषद के रूप में संगठित किया गया. संघ की सदस्यता १५ वर्ष से अधिक आयु वाले ऐसे व्यक्तियों के लिए खुली थी,

जो कुष्ठ रोग, क्षय तथा अन्य संक्रामक रोगों से मुक्त थे. इसके लिए कोई जातीय प्रतिबन्ध नही था. संघ का संचालन पूर्णतया लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर होता था. और उसे अपने सदस्यों पर अनुशासन लागू करने का अधिकार प्राप्त था.

बौद्ध धर्मग्रंथ (buddhist books pdf free download)

आरम्भिक बौद्ध ग्रन्थ पालि भाषा में लिखे गये थे. पालि शब्द का अर्थ पाठ या पवित्र पाठ है. भाषा के रूप में पालि प्राचीन प्राकृत है तथा बुद्ध के समय में यह मगध तथा समीपवर्ती प्रदेशों में बोलचाल की भाषा थी.

स्वयं बुद्ध भी पालि भाषा में ही उपदेश देते थे. बौद्ध ग्रंथों में त्रिपिटक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.

बौद्ध साहित्य त्रिपिटक (Tripiṭaka in hindi)

  • विनय पिटक- इसमें संघ सम्बन्धी नियमों, दैनिक आचार विचार व विधि निषेधों का संग्रह है.
  • सुतपिटक- इसमें बौद्ध धर्म के सिद्धांत व उपदेशों का संग्रह है. सुत पिटक पांच निकायों में विभाजित है. दीर्घनिकाय, मजिझ्म निकाय, अंगुतरनिकाय, संयुक्त निकाय एवं खुदद्क निकाय.
  • खुदद्क निकाय बौद्ध धर्म दर्शन से सम्बन्धित १५ ग्रंथों का संकलन है, जिसमें धम्मपद, थेरीगाथा एवं जातक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. बौद्ध धर्म में धम्मपद का वही स्थान है जो हिन्दू धर्म में गीता का है. जातक में बुद्ध पद प्राप्त होने से पूर्व जन्मों से सम्बन्धित लगभग ५५० कथाओं का संकलन हैं.
  • अभिधम्म पिटक- यह पिटक प्रश्नोत्तर क्रम में है इसमें बुद्ध की शिक्षाओं का दार्शनिक विवेचन एवं आध्यात्मिक विचारों को समाविष्ट किया गया है.

बौद्ध संगतियां , स्थान , अध्यक्ष व शासनकाल (Description of Buddhist Councils in Hindi)

प्रथम बौद्ध संगीति ४८३ ई.पू को सप्तपर्ण गुफा राजगृह बिहार में हुई उस समय शासक अजात शत्रु तथा संगीति अध्यक्ष महक्सस्प थे.

द्वितीय बौद्ध संगीति ३८३ ईपू में चुल्ल्बाग वैशाली बिहार में कालाशोक शासक थे साब्कमीर अध्यक्ष रहे. तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन २५० ईपू में मगध की राजधानी पाटलीपुत्र में हुआ

उस समय मौर्य वंश के अशोक शासक थे तथा अध्यक्ष मोग्ग्लिपुत तिस्स इस संगीति के अध्यक्ष थे. चतुर्थ बौद्ध संगीति ७२ ईपू में कुंडलवन में कनिष्क के शासनकाल में वसुमित्र इसके अध्यक्ष थे.

चतुर्थ बौद्ध संगीति के बाद बौद्ध धर्म के दो भाग महायान और हीनयान में विभाजित हो गया. महायान को मानने वाले बुद्ध की मूर्ति पूजा में विश्वास करते है.

महायान भारत के अलावा चीन जापान कोरिया अफगानिस्तान तुर्की तथा दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों में प्रचलित हुआ, जबकि हीनयान मगध और श्रीलंका में ही प्रचलित हो पाया.

महायान और हीनयान के अतिरिक्त एक और भाग आठवी शताब्दी में प्रचलन में आया, जिसका नाम वज्रयान. यह बिहार और बंगाल में काफी प्रचलित हुआ.

भारत में प्रथम मूर्ति जिसकी पूजा की गई संभवतः गौतम बुद्ध की ही थी. बंगाल के शैव शासक शशांक ने बोधिवृक्ष को कटवा दिया था. कनिष्क, हर्षवर्धन महायान शाखा के पोषक राजा थे.

बौद्ध धर्म की भारतीय संस्कृति को देन पर निबंध | Essay on Buddhism Contribution to Indian culture In Hindi

महात्मा बुद्ध द्वारा प्रवर्तित बौद्ध धर्म का उदय भारत की भूमि पर हुआ. सत्य अहिंसा जैसे विचारों को मूल आधार बनाते हुए हिन्दू धर्म से बौद्ध धर्म की नींव रखी गई थी. आज के निबंध में बौद्ध धर्म की देन तथा भारतीय संस्कृति में योगदान को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे.

बौद्ध धर्म असमानता पर समानता के उद्देश्य से उदय हुआ. धन के संचय न करने का विचार इसके मूल में था. गौतम बुद्ध के विचारों में मानव की घ्रणा, क्रूरता, हिंसा तथा दरिद्रता का मूल कारण धन ही हैं.

बुद्ध का मानना था कि एक कृषक को उनके समस्त साधन मिलने चाहिए एक व्यापारी को अपने कारोबार की समस्त सुविधाए मिलती चाहिए तथा एक मजदूर को उसके हक की कमाई हासिल होनी चाहिए भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की देन निम्नलिखित रही हैं.

सरल स्पष्ट और लोकप्रिय धर्म (Simple clear and popular religion)

भारत में सर्वप्रथम बौद्ध धर्म ही एक लोकप्रिय धर्म के रूप में फैला. इसमें वैदिक धर्म की तरह कर्मकांड, यज्ञ, आदि नहीं थे न जाति भेद था. इसके द्वार सभी के लिए खुले हुए थे.

यह ऐसा धर्म था, जिसे आसानी से ग्रहण कर सकते थे. पहली बार धर्म में व्यक्तित्व को महत्व और प्रधानता दी गई.

वैदिक धर्म पर प्रभाव (Influence on Vedic religion)

बौद्ध धर्म ने हिन्दू धर्म को बहुत प्रभावित किया. बाह्य आडम्बर, यज्ञ अनुष्ठान आदि इस समय हिन्दुओं में प्रचलित थे. बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के कारण वे कम हो गये थे. यज्ञों में पशुबलि की प्रथा समाप्त होती चली गई.

मूर्तिपूजा का प्रसार (Promotion of idol worship)

महायान सम्प्रदाय के बौद्ध लोगों ने बुद्ध की मूर्ति बनाकर उनकी पूजा करना शुरू कर दिया. उनका हिन्दू धर्म के अनुयायियों पर भी प्रभाव पड़ा. और उन्होंने अपने देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा करना शुरू कर दिया.

संघ व्यवस्था (Union system)

महात्मा बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुओं के लिए संघ की व्यवस्था की थी. इन बौद्ध संघों के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया. बौद्धों की मठ प्रणाली हिन्दू धर्म को भी प्रभावित किया. स्वामी शंकराचार्य ने भारत में चारों दिशाओं में मठों की स्थापना की.

आचार की शुद्धता (Purity of conduct)

बौद्ध धर्म ने दस शील को अपनाकर भारतीय जनता को नैतिकता, लोकसेवा और सदाचार का मार्ग दिखलाया.

धार्मिक सहिष्णुता (religious tolerance)

बौद्ध धर्म ने भारतीय समाज को धार्मिक सहिष्णुता का पाठ पठाया. बुद्ध ने दूसरे धर्मों की निंदा कभी नहीं की और बौद्धिक स्वतंत्रता पर बल दिया. इसका प्रभाव हिन्दू धर्म पर भी पड़ा.

दर्शन का प्रभाव (Philosophy effect)

बौद्ध विद्वान् नागार्जुन ने शून्यवाद तथा माध्यमिक दर्शन को प्रतिपादित किया. बौद्ध धर्म के अनात्मवाद, अनीश्वरवाद, प्रतीत्य समुत्पाद, कर्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद, निर्वाण आदि दार्शनिक विचारों ने भारतीय चिंतन प्रणाली के विकास में योगदान दिया.

असंग, वसु, बन्धु, नागार्जुन, धर्म कीर्ति आदि से बौद्ध दार्शनिकों ने बौद्ध विचारधारा को विकसित किया और अपनी रचनाओं से भारतीय दार्शनिकों को प्रभावित किया. बौद्ध धर्म का खंडन करने के लिए अन्य सम्प्रदायों के दार्शनिक सामनें आए, इनमें शंकराचार्य का नाम प्रमुख हैं.

साहित्यिक क्षेत्र (Literary field)

साहित्य के क्षेत्र में भी बौद्ध धर्म की महान देन हैं. बौद्ध विद्वानों ने संस्कृत भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना की जो भारतीय साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं. इस ग्रंथों में दिव्यावदान, बुद्धचरित, सौन्दरानन्द, महावस्तु, ललित विस्तार, मंजु श्री मूल कल्प, चान्द्र व्याकरण आदि प्रमुख हैं.

जातक कथाओं, विनयपिटक, सुतपिटक, अभिधम्मपिटक, मिलिन्दपन्हों, दीपवंश, महावंश आदि ग्रंथों की रचना पालि भाषा में की गई. बौद्ध साहित्य से हमें प्राचीन भारत का इतिहास जानने में भी बहुत सहायता मिलती हैं.

लोक भाषाओं में उन्नति (Advancement in local languages)

बौद्ध धर्म ने लोक भाषाओं के विकास में भी पर्याप्त योगदान दिया हैं. बौद्ध धर्म साधारण बोलचाल की भाषा द्वारा प्रचलित किया गया था. पालि साहित्य का प्रचार भी इसी कारण हुआ.

कला के क्षेत्र में देन (Contribution to the field of art)

कला के क्षेत्र में बौद्धों की महान देन रही हैं. गुहा गृहों, मन्दिरों और स्तूपों का निर्माण बौद्धों द्वारा हुआ. साँची और भरहुत के स्तूप तथा अशोक के शिला स्तम्भ बौद्ध कला के विशाल और सुंदर नमूने हैं. अजंता और बाघ की अधिकांश चित्रकारी बौद्ध कालीन हैं.

सम्राट अशोक के शिला स्तम्भ, कार्ले का गुहा मन्दिर तथा गया का बौद्ध मन्दिर तत्कालीन स्थापत्य कला के श्रेष्ठ नमूने हैं. बौद्धों के कारण भारत में मूर्ति कला के क्षेत्र में एक नई शैली का जन्म हुआ, जो गांधार शैली के नाम से प्रसिद्ध हैं.

विचारों की स्वतंत्रता (Freedom of thought)

बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था कि उनके वचनों का अन्धानुकरण न कर अपनी बुद्धि से परखना चाहिए. इस प्रकार बौद्ध धर्म ने बौद्धिक स्वतंत्रता को प्रोत्साहन दिया.

शिक्षा का प्रसार (Spread education)

शिक्षा के प्रसार में बौद्ध धर्म का विशेष योगदान रहा, नालंदा विश्वविद्यालय के द्वारा शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ. नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला के विश्वविद्यालय तत्कालीन शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे. इन विश्वविद्यालयों ने भारतीय शिक्षा एवं भारतीय संस्कृति के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

सामाजिक समानता (social equality)

बौद्ध धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप हिन्दू समाज में प्रचलित जाति प्रथा के बंधन शिथिल होते चले गये तथा निम्न वर्ग के लोगों में आत्म विश्वास तथा आत्म सम्मान की भावनाएं उत्पन्न हुई.

राजनीतिक प्रभाव (Political influence)

राजनीतिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी देन यह है कि अहिंसा का उपदेश देकर इसने भारतीय नरेशों तथा सम्राटों के ह्रदय में रक्तपात तथा युद्ध के प्रति घ्रणा उत्पन्न कर दी.

बौद्ध धर्म से प्रभावित होने के कारण ही सम्राट अशोक ने युद्ध न करने का संकल्प लिया था. बौद्ध धर्म ने भारतीय शासकों को समाज सेवा तथा लोककल्याण का पाठ पढ़ाया.

राजनीतिक तथा सामाजिक एकता (Political and social unity)

बौद्ध धर्म से राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहन मिला. बौद्धों के जाति विरोध तथा समानता के सिद्धांत ने इस भावना को मजबूत बनाया.

निर्वाण का द्वार ऊंच नीच और धनी निर्धन सबके लिए द्वार खोलकर समाज में एकता उत्पन्न की. भारत के कोने कोने में धर्म का प्रसार कर बौद्ध भिक्षुओं ने एकता की भावना जागृत की.

भारतीय संस्कृति का प्रसार विदेशों में (The spread of Indian culture abroad)

इस धर्म के द्वारा भारतीय संस्कृति का प्रसार चीन, जापान, मंगोलिया, बर्मा, लंका, अफगानिस्तान, जावा, सुमात्रा आदि में हुआ. ये देश भारत को एक तीर्थ समझने लगे. यह बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी देन हैं.

  • जैन धर्म का इतिहास निबंध नियम शिक्षा संस्थापक
  • धर्म क्या है धर्म का अर्थ व परिभाषा 
  • पौराणिक हिन्दू धर्म की विशेषताएं
  • बोधिधर्म का इतिहास और जीवन परिचय

उम्मीद करता हूँ दोस्तों बौद्ध धर्म का इतिहास निबंध संस्थापक शिक्षाएं नियम Buddhism History Founder Teaching Rules Essay In Hindi का यह आर्टिकल आपको पसंद आया होगा.

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बौद्ध धर्म पर निबंध Essay on Buddhism in Hindi – Boudh Dharm

बौद्ध धर्म पर निबंध Essay on Buddhism in Hindi - Boudh Dharm

बौद्ध धर्म दुनिया के बड़े धर्मों में से एक है। इसके संस्थापक गौतम बुद्ध थे। जिन्हे शाक्यमुनि के नाम से भी जाना जाता है। ईसाई और इस्लाम धर्म से पहले बौद्ध धर्म नहीं आया था।

इन दोनों धर्मों के बाद बौद्ध धर्म की गिनती दुनिया के बड़े धर्मों में होने लगी। इस धर्म को मानने वाले लोग भूटान, नेपाल, भारत, श्रीलंका, चीन, जापान, कम्बोडिया, थाईलैंड और कोरिया में देखने को मिलते हैं। इन देशों के अलावा ऐसे कई अन्य देश भी हैं जो इस धर्म का पालन करते हैं।

बौद्ध धर्म पर निबंध Essay on Buddhism in Hindi - Boudh Dharm

बौद्ध धर्म का इतिहास

बौद्ध धर्म की स्थापना गौतम बुद्ध ने की थी और इन्हे एशिया का ज्योति पुंज भी कहा जाता है। गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसवी में लुम्बनी नेपाल में हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। इनके पिता का नाम शुद्धोधन था।

गौतम बुद्ध के जन्म के कुछ दिन पश्चात ही उनकी माता मायादेवी का देहांत हो गया और फिर इनका पालन – पोषण इनकी सौतेली माता गौतमी ने किया था। जब इनकी माता सिद्धार्थ को जन्म देने वाली होती हैं तब इनको एक सपना आता है कि एक सफ़ेद हांथी इनके पास आ रहा है और इनके चरणों में कमल अर्पित कर रहा है।

ऐसा सपना देखकर इनकी माँ आश्चर्यचकित हो जाती हैं और विद्वानों से पूछती हैं। तब विद्वान बताते हैं कि इसके दो कारण हो सकते हैं – या तो तुम्हारा बेटा इस पृथ्वी पर राज्य करेगा या वो धर्म का पाठ पढ़ाने वाला बनेगा।

इन्हे बचपन से ही हर तरह की सुविधाएं दी गयीं थी। ऐसा कहा जाता है कि इनके पिता जी ने इन्हे तीन महल दिए थे जिसमें तीन तालाब थे और तीनों में अलग- अलग तरह के कमल उगते थे। इन्हे बाहरी दुनिया का कुछ भी ज्ञान नहीं था।

क्योंकि इनको सारी सुविधाएं इनके राज महल में ही उपलब्ध कराई जाती थी। जब सिद्धार्थ 16 वर्ष के थे तब इनका विवाह दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा से करवा दिया गया। इनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया। ये अपनी पत्नी से अतिशय प्रेम करते थे, इतना प्रेम करते थे कि प्रेम में लीन होने पर ये दोनों पति – पत्नी छत से नीचे गलियारे में गिर जाते हैं। कहने का तात्पर्य कि उन्हें होश नहीं रहता था।

एक बार की बात है जब सिद्धार्थ कपिलवस्तु के भ्रमण के लिए अपने सारथी के साथ निकले तब उन्हें चार दृश्य दिखाई दिए – (1) एक बूढ़ा व्यक्ति, (2) एक बीमार व्यक्ति, (3) शव और (4 ) एक संयासी ।

तब उन्होंने सारथी से पूछा कि ये सब क्या है ? तब सारथी ने बताया कि यही सब जीवन की सच्चाई है। तब सिद्धार्थ को लगा कि मैं कहाँ मोह – माया में फंसा हुआ हूँ। ये सब तो दुःखी करने वाली चीज़ें हैं, इनका अंत कैसे होगा? इस तरह के सवालों के जवाब के लिए वे घर से निकल पड़े।

29 वर्ष की आयु में इन्होने सांसारिक चीज़ों से मोह त्याग दिया और महल छोड़ कर चले गए। इसके बाद इन्होने आलारकलाम (सिद्धार्थ के प्रथम गुरु) से सांख्य दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद इन्होने कठिन तपस्या की।

6 वर्ष तक इन्होने निरंजना नदी के किनारे, पीपल के पेड़ के नीचे तपस्या की तब 35 वर्ष की आयु में इन्हे ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्त होने के बाद ये गौतम बुद्ध नाम से जाने जाने लगे। जहाँ इन्हे ज्ञान प्राप्त हुआ था वह स्थान बोधगया नामक नाम से जाना जाने लगा।

इन्होने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया। जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। इन्होने अपने उपदेश सबसे अधिक कौशल देश की राजधानी श्रीवस्ती में पालि भाषा में दिए। इनके अनुयायी शासकों में से बिंबसार, प्रसेनजित और उदयन प्रमुख हैं। गौतम बुद्ध की मृत्यु कुशीनारा में चुंद द्वारा जहर युक्त भोजन खिलाने से हुई थी। जिसे महापरिनिर्वाण कहते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि इनके शरीर के अवशेषों को आठ भागों में बाँट कर वहां आठ स्तूपों का निर्माण किया गया है। बौद्ध धर्म अनीश्वरवादी है और पुनर्जन्म पर विश्वास रखता है।

बौद्ध धर्म पर निबंध Essay on Buddhism in Hindi - Boudh Dharm

बुद्ध के अनुयायी को दो भागों में बांटा गया है 

भिक्षुक और उपासक।  

जिन लोगों ने सन्यास ग्रहण कर लिया था वे भिक्षुक थे और गृहस्थ आश्रम व्यतीत करते हुए बौद्ध धर्म का अनुसरण करने वाले लोगों को उपासक कहा गया है।

बुद्ध,धम्म संघ – बौद्ध धर्म के तीन रत्न हैं –

  • बुद्धं शरणं गच्छामि, – मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ।  
  • संघं शरणं गच्छामि, –  मैं संघ की शरण में जाता हूँ।  
  • धम्मं शरणं गच्छामि। –  मैं धम्म नीति की शरण में जाता हूँ।

बौद्ध धर्म को दो भागों में बांटा गया है

हीनयान और महायान।

गौतम बुद्ध ने दुःख से सम्बंधित चार आर्य सत्यों को बताया है

  • दुःख – इस संसार में सब जगह दुःख है। जन्म में, बीमारी में, किसी से अलग होने में, इक्षाओं की पूर्ति न होने में।
  • दुःख कारण – तृष्णा दुःख का कारण है।
  • दुःख निरोध – तृष्णा से मुक्ति पायी जा सकती है।
  • दुख निरोधगामिनी प्रतिपदा – अष्टांगिक मार्ग के अनुसार तृष्णा से मुक्ति पायी जा सकती है।
“दर्द अपरिहार्य है और पीड़ा वैकल्पिक है।”

सांसारिक दुखों से मुक्त होने के लिए भगवान गौतम बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के बारे में बताया है,जो निम्न प्रकार हैं –

1. सम्यक दृष्टि, 2. सम्यक संकल्प, 3. सम्यक वाणी, 4. सम्यक कर्मांत, 5. सम्यक आजीव, 6. सम्यक व्यायाम, 7. सम्यक स्मृति, 8. सम्यक समाधि

बुद्ध भगवान ने स्वयं कहा था कि ध्यान करो, ज्ञान की प्राप्ति करो, मुझसे बात करो, मुझपे आँखें बंद करके विश्वास मत करो। आप खुद अपने आप को जानो। आप अपने आप से प्रेम करो। “ यदि आप वास्तव में खुद से प्यार करते हैं , तो आप कभी भी दूसरे को चोट नहीं पहुंचाएंगे। ”

मैं आप सबको रास्ता दिखा सकता हूँ, करना क्या है ? ये आपको तय करना है। बौद्ध धर्म का सबसे प्रमुख त्योहार बुद्ध पूर्णिमा है, जिसे न जाने कितने देशों के लोग मनाते हैं। गौतम बुद्ध और बुद्धिज़्म पर साहित्य में भी स्थान देखने को मिलता है।

डॉ. भीम राव अम्बेडकर जी की रचना “द बुद्धा एंड द धम्मा”, एडविन अर्नाल्ड द्वारा रचित कविता “द लाइट ऑफ़ एशिया”, दलाई लामा द्वारा रचित “द फोर नोबल ट्रुथ्स”, राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित “महामानव बुद्ध”, अश्वघोष द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य “बुद्ध्चरितम्” और बौद्ध धर्म की सबसे प्रसिद्द रचना “धम्मपद” है।

सम्राट अशोक ने इस धर्म को अपनाया था। वे बुद्ध के बड़े अनुयायिओं में से एक थे। ये बुद्ध की मानवतावादी विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। इन्होने बुद्ध की स्मृति में कई स्तम्भ स्थापित करवाए थे जो आज भी श्री लंका, थाईलैंड, चीन, लुम्बनी में अशोक स्तम्भ के नाम से जाने जाते हैं। वास्तव में यह एक ऐसा धर्म है जो मानवता को सिखाता है और जीवन की सच्चाई से अवगत कराता है।

Help Source –

https://en.wikipedia.org/wiki/Buddhism https://en.wikipedia.org/wiki/Gautama_Buddha https://www.buddhanet.net/pdf_file/lifebuddha.pdf https://www.britannica.com/topic/Buddhism

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महात्मा गौतम बुद्ध पर निबंध / essay on Mahatma Buddha in hindi

आपको अक्सर स्कूलों में निबंध लिखने को दिया जाता है। ऐसे में हम आपके लिए कई मुख्य विषयों पर निबंध लेकर आये हैं। हम अपनी वेबसाइट istudymaster.com के माध्यम से आपकी निबंध लेखन में सहायता करेंगे । दोस्तों निबंध लेखन की श्रृंखला में हमारे आज के निबन्ध का टॉपिक महात्मा गौतम बुद्ध पर निबंध / essay on Mahatma Buddha in hindi है। आपको पसंद आये तो हमे कॉमेंट जरूर करें।

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रूपरेखा (1) प्रस्तावना, (2) जीवन-परिचय, (3) बोधत्व की प्राप्ति,(4) उपसंहार।

प्रस्तावना-

शान्ति और अहिंसा का उदय तब होता है, जब संसार में हिंसा और अशान्ति का अन्धकार फैल जाता है। अन्धविश्वास, अधर्म और रूढ़ियों से फँसे हुए समाज को परस्पर प्रेम और सहानुभूति के द्वारा मुक्ति दिलाने के लिए इस पृथ्वी पर कोई-न-कोई युग-प्रवर्त्तक महापुरुष अवतरित होता है। महात्मा गौतम बुद्ध का आगमन इसी रूप में हुआ था।

जीवन-परिचय-

महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म 569 ई० पू० कपिलवस्तु के क्षत्रिय महाराजा शुद्धोधन की धर्मपत्नी महारानी माया के गर्भ से उस समय हुआ था, जब वे राजभवन को लौटते समय लुम्बनी नामक वन में आ गई थीं। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। जन्म के कुछ समय बाद माता का देहान्त हो जाने के कारण बालक सिद्धार्थ का लालन-पालन विमाता प्रजावती के द्वारा हुआ। राजा शुद्धोधन का अपने इकलौते पुत्र सिद्धार्थ के प्रति अपार प्रेम और स्नेह था। बालक सिद्धार्थ बहुत गम्भीर और शान्त स्वभाव का था। वह दयालु और दार्शनिक प्रवृत्ति का था । वह अल्पभाषी तथा जिज्ञासु स्वभाव के साथ-साथ सहानुभूतिपूर्ण सहज स्वभाव का जनप्रिय बालक था।

वह लोक जीवन जीते हुए परलोक की चिन्तन रेखाओं से घिरा हुआ था । बालक सिद्धार्थ जैसे-जैसे बड़ा होने लगा, वैसे-वैसे उसका मन संसार से विरक्त होने लगा। वह सभी प्रकार के भोग-विलास से दूर एकान्तमय जीवन व्यतीत करने की सोचने लगा। अपने पुत्र सिद्धार्थ के वैरागी स्वभाव का देखकर राजा शुद्धोधन को भारी चिन्ता हुई। अपने पुत्र के सांसारिक विरक्ति की भावना को समाप्त करने के लिए पिता शुद्धोधन सिद्धार्थ के लिए एक-से-एक बढ़कर उपाय करते रहे। इससे भी सिद्धार्थ का विरक्त मन रुका नहीं अपितु और बढ़ता ही रहा। राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को सांसारिक भोग-विलास में लाने के प्रयत्न शुरू कर दिये।

राजा शुद्धोधन ने यह आदेश दिया था कि सिद्धार्थ को एकान्तवास में ही रहने दिया जाए। सिद्धार्थ को एक जगह रखा गया। उसे किसी से कुछ बात कहने की मनाही कर दी गयी। केवल खाने-पीने, स्नान, वस्त्र आदि सारी सुविधाएँ दी गयीं। अब सिद्धार्थ का मन संसार के रहस्य के साथ प्रकृति के अनजाने कार्यों के प्रति जिज्ञासु हो चला था। वह सुख-सुविधाओं के प्रति कम लेकिन विरक्ति के प्रति अत्यधिक उन्मुख और आसक्त हो चला था । बहुत दिनों से एकान्त में रहने के कारण सिद्धार्थ के कैदी मन से अब चिड़ियाँ बात करने लगीं। धीरे-धीरे चिड़ियों की बोली सिद्धार्थ की समझ में आने लगी।

अब चिड़ियों ने सिद्धार्थ के मन को विरक्ति की ओर ले जाने के लिए उकसाना शुरू कर दिया। चिड़ियाँ आपस में बातें करती थीं। ‘इतना बड़ा राजकुमार हैं, बेचारे को कैदी की तरह जीना पड़ रहा है। इसको क्या पता कि इस बाग-बगीचे और इन सुविधाओं की गोद के बाहर भी संसार है, जहाँ दुःख-सुख की छाया चलती रहती है। अगर यह बाहर निकलता, तो इसको संसार का सच्चा ज्ञान हो जाता। सिद्धार्थ का जिज्ञासु मन अब और उत्सुक हो गया। उसने अब बाहर जाने, देखने, घूमने की और जानने की तीव्र उत्कंठा प्रकट की।

राजा शुद्धोधन ने अपने विश्वस्त सेवकों और दासियों को इधर-उधर करके बालक सिद्धार्थ को राजभवन में लौटाने का आदेश दिया। ऐसा ही हुआ फिर भी सिद्धार्थ की चिन्तन रेखाएँ बढ़ती गयीं। पिता शुद्धोधन को राजज्योतिषी ने यह साफ-साफ भविष्यवाणी सुना दी थी कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा या विश्व का सबसे बड़े किसी धर्म का प्रवर्त्तक बनकर रहेगा।

बोधत्व की प्राप्ति-

एक समय ऐसा भी आया कि एक रात सिद्धार्थ अपनी धर्मपत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को सोते हुए छोड़कर संन्यास के मार्ग पर चल पड़े। घर-परिवार छोड़कर सिद्धार्थ शान्ति और सत्य की तलाश में वन में जाकर घोर तपस्या करने लगे। गया में वट वृक्ष के नीचे समाधिस्थ हो गये।उन्हें बहुत समय के पश्चात् अचानक ज्ञान प्राप्त हो गया। ज्ञान प्राप्त होने के कहलाने लगे। गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म की शिक्षा और उपदेश के द्वारा यह ज्ञान दिया कि ‘अहिंसा परमो धर्म है।’

एक समय इस धर्म का प्रभाव पूरे विश्व में सबसे अधिक था। आज भी चीन, जापान, तिब्बत, नेपाल देशों में बौद्ध धर्म ही प्रधान धर्म के रूप में प्रचलित है। इस धर्म के अनुयायी बौद्ध कहलाते हैं। आज भी सभी धर्मों के अनुयायी बौद्ध धर्म के इस मूल सिद्धान्त को सहर्ष स्वीकार करते हैं कि “श्रेष्ठ आचरण ही सच्चा धर्म है।”

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Essay on Gautam Buddha in Hindi महात्मा गौतम बुद्ध पर निबंध

हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Essay on Gautam Buddha in Hindi पर पुरा आर्टिकल। आज हम आपके सामने Gautam Buddha के बारे में कुछ जानकारी लाये है जो आपको हिंदी essay के दवारा दी जाएगी। आईये शुरू करते है Essay on Gautam Buddha in Hindi

  • Essay on Gautam Buddha in Hindi

essay on Gautam Buddha in hindi

प्रस्तावना :

जब कभी समाज के अनाचार, अशान्ति, अत्याचार, अज्ञान, | कुरीतियाँ अपनी जड़ जमा लेती है, तब-तब कोई-न-कोई महापुरुष इस धरती पर जन्म लेता है और संसार को विपदाओं से उबारता है। महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म भी ऐसे ही समय में हुआ था जब समाज में अनेक कुरीतियाँ अपना दुष्प्रभाव दिखाकर मनुष्य को पतन की ओर ले जा रही थी। ऐसे समय में गौतम बुद्ध ने अहिंसा, प्रेम, सत्य, त्याग, शान्ति का पाठ पढ़ाकर इन कुरीतियों से मुक्ति पाने का बीड़ा उठाया था।

 जन्म परिचय :

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पूर्व में कपिलवस्तु के महाराजा शुद्धोधन तथा महारानी माया के गर्भ से लम्बनी नामक स्थान में वैशाख माह की पूर्णिमा को हुआ था। जन्म के समय ही इनकी माता के देहावसान हो गया था। इसलिए बुद्ध का पालन-पोषण विमाता प्रद्मावती ने किया था। इनके जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक मानव-जाति का सांसारिक या आध्यात्मिक सम्राट बनेगा।

धीरे-धीरे बुद्ध के स्वभाव में परिवर्तन आने लगा। उन्हें सांसारिक सुखों में कोई रुचि नहीं थी। वे तो वैरागी का सा जीवन जीते थे। यह सब देखकर उनके पिता को चिन्ता होने लगी। अपने पुत्र को प्रसन्न रखने के लिए महाराजा शुद्धोदन ने अनेक उपाय किए तथा उनका विवाह अति सुन्दर कन्या यशोधरा के साथ करवा दिया। कुछ समय पश्चात् उनके एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम ‘राहुल’ रखा गया।

मन परिवर्तन :

एक दिन सिद्धार्थ ने रथ पर सवार होकर बाहर भ्रमण करते हुए एक वृद्ध व्यक्ति को देखा। उसे देखते ही उन्होंने सारथी से पूछा, कि यह कौन है? इस प्रकार सारथी ने कहा कि बुढ़ापे में हर व्यक्ति की दशा दयनीय ही हो जाती है। आगे जाकर उन्हें एक अस्वस्थ व्यक्ति दिख। वह भी बहुत परेशान लग रहा था।

बुद्ध ने सारथी से उस रोगी व्यक्ति के बारे में भी पूछा। जब सारथी ने बताया कि रोग में इन्सान की हालत ऐसी ही हो जाती है, तो उन्हें संसार से वैराग्य सा होने लगा। उन्हें लगा कि यह संसार तो नश्वर है, हर व्यक्ति का अन्त दुखदायी ही होता है।

उन्होंने सांसारिक रहस्यों को जानने के लिए संसार को छोड़ने को निश्चय किया। उन्होंने मन में ठान लिया कि अप्राकृतिक सुख साधनों को त्यागकर वास्तविक सुख की खोज करना ही जीना है।

 गृह त्याग :

वे रात में अचानक उठे। अपनी पत्नी व बेटे को ध्यानपूर्वक देखा और उन्हें गहरी नींद में छोड़कर चुपचाप घर से निकल गए। नदी किनारे पहुँचकर उन्होंने अपने बालों को काट दिया तथा अपने राजसी ठाट-बाट सारथी को सौंप दिए। इसके पश्चात् वे सत्य की खोज में निकल पड़े। सिद्धार्थ ने वनों में घूम-घूमकर तपस्या करनी आरम्भ कर दी। इससे उनका शरीर बेहद दुर्बल हो गया।

अन्त में वे ‘गया’ (बिहार) पहुँचे। वहाँ पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर उन्होंने कई दिन तक तपस्या की। वहां उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। इसके पश्चात् वे ‘सारनाथ आए तथा वहाँ उन्होंने पाँच साधुओं को उपदेश दिया।

वे घूमते-घूमते कपिलवस्तु भी आए। वहाँ उन्होंने अपने माता-पिता, पत्नी, पुत्र सभी को उपदेश दिए। वे लोग भी बुद्ध के उपदेशों दो नकर बौद्ध बन गए।

बुद्ध की शिक्षाएँ :

महात्मा बुद्ध ने मानव को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने दया, प्रेम, सहानुभूति, शान्ति, कर्तव्य निष्ठा जैसी भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया तथा उनकी इन शिक्षाओं का मानव जाति पर गहरा प्रभाव पड़ा। चीन, जापान, श्रीलंका, तिब्बत, नेपाल आदि देशों में आज भी बौद्ध | धर्म का प्रभाव देखा जा सकता है।

भगवान बुद्ध की शिक्षाएँ प्रायदायिनी थी। उनकी शिक्षाएँ मात्र उपदेश नहीं, अपितु वे तो अनुभव पर आधारित थी। उनकी शिक्षाओं ने हर रुढ़ि तथा आडम्बर का परित्याग कर वास्तविक आध्यात्मिक जीवन अपनाने की शिक्षा दी।

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563 ई. पूर्व शाक्य जनपद में कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी ग्राम में भगवान गौतम बुद्ध का जन्म महाराज शुद्धोदन की महारानी महामाया के गर्भ से हुआ था।

माता महामाया पुत्ररत्न की प्राप्ति के बाद अधिक दिनों तक संसार में नहीं रहीं। सप्ताहान्त होते-होते वे कालकवलित हो गई और बालक सिद्धार्थ का लालन-पालन उनकी मौसी को सौंपा गया। युवा होने पर कोलिय राजकुमारी यशोधरा के साथ उनका विवाह हो गया। कुछ समय उपरान्त उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम राहुल रखा गया।

राजकुमार सिद्धार्थ ने एक दिन रोगी को तथा एक दिन किसी शव को ले जाते हुए लोगों को देखा। इन सब घटनाओं की वजह से उन्हें वैराग्य हो गया। एक दिन रात में पिता और माता गौतमी का वात्सल्य, सुन्दर पत्नी का प्रेम तथा शिशु राहुल के अनुराग को छोड़कर वे कपिलवस्तु छोड़कर अपने सारथी छन्नक को साथ लेकर राजगृह पहुंच गए। वहां के राजा बिम्बसार ने उनका भरपूर स्वागत किया तथा अनुरोध किया कि वे राज-प्रासाद में ही निवास करें किन्तु सिद्धार्थ इस प्रलोभन में आने वाले नहीं थे। वे राजगृह से गया के पहाड़ी जंगलों की ओर बढ़ते गए, वहीं नेरंजटा नदी के तट पर बैठकर उन्होंने लगातार छह वर्षों तक घोर तपस्या की, अन्ततः वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन उन्हें बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई और उनके काफी समय से चले आ रहे अस्थिर मन को परम शान्तिदायक ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा कि- “मैं वर्षों से इस जन्म-मरण के कारण को खोजता रहा। अब मैंने जन्म-मरण के कारण को, तृष्णा को पहचान लिया है। यही तृष्णा अज्ञान है। अब मेरे चित्त से तृष्णा का क्षय हो गया है।”

ज्ञान प्राप्त कर भगवान गौतम बुद्ध सबसे पहले सारनाथ पहुंचे, यह स्थान वाराणसी के समीप है। भगवान गौतम ने सर्वप्रथम यहीं पर बौद्ध भिक्षुओं को उपदेश दिया था।

“भिक्षुओं को दो सिरे की बातों से बचना चाहिए। किन दो सिरे की बातों से? एक तो व्यर्थ में कायक्लेश से शरीर को बेकार तकलीफ देने से । दूसरे काम-भोगों में ही लिप्त रहने से। इन बातों से बचकर आदमी को कल्याण पथ का पथिक बनना चाहिए। वह कल्याण पथ कौन-सा है- ठीक से विचार करना, ठीक संकल्प करना, ठीक बोलना, ठीक कर्म करना, ठीक आजीविका, ठीक उद्योग, ठीक स्मृति और ठीक समाधि।” इन्हें अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है।

कालान्तर में बौद्ध भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी थी और वे भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार करने में जुट गए थे। भगवान गौतम बुद्ध की शिक्षाएं विस्तार से धम्मपद में संकलित हैं। भगवान गौतम बुद्ध विचारों का एशिया महाद्वीप में काफी प्रचार हुआ था। काबुल, कन्दहार से लेकर तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, बर्मा (म्यांमार), जावा, सुमात्रा, श्रीलंका, इंडोनेशिया आदि देशों में भगवान गौतम बुद्ध के अनुयायी आज भी पाए जाते हैं। कालान्तर में सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का काफी प्रचार किया था।

उन्होंने बड़े-बड़े शिलाखण्डों में, स्तूपों में भगवान बुद्ध की शिक्षाएं, पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित कराई थीं। भगवान गौतम ने 29 वर्ष की आयु में गृहत्याग किया और छह वर्षों तक निरंतर साधना की तथा 35 वर्ष की आयु से लेकर 80 वर्ष की आयु पर्यन्त वे लोक-कल्याण के कार्यों में लगे रहे।

  • महात्मा गौतम बुद्ध पर निबंध

महात्मा गौतम बुद्ध को लोग भगवान बुद्ध कहकर पुकारते हैं। महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 623 वर्ष पूर्व हुआ था। शैशव काल में आपका नाम सिद्धार्थ था। आपके पिता शुद्धोधन शाक्य वंश के राजा थे। आपके जन्म के सात दिन बाद ही आपकी माता महामाया का देहांत हो गया था। आपका लालन-पालन आपकी मौसी ने किया था। आपके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। सुना जाता है कि आपके जन्म से पूर्व माता माया देवी ने यह स्वप्न देखा था कि एक अपूर्व ज्योति उनकी देह में प्रविष्ट हो रही है। महापुरुषों की लीलाएँ वैसे भी विचित्र होती हैं। शैशवकाल से ही सिद्धार्थ एकांत प्रेमी थे। आपकी एकांतप्रिय प्रवृत्ति आपके पिता के लिए चिंता का विषय थी। सिद्धार्थ एकांत में बैठकर बस चिंतन किया करते थे। आपका विवाह अद्वितीय सुंदरी राजकुमारी यशोधरा से हुआ था।

पिता शुद्धोधन और अन्य अनुभवी लोगों की सम्मति से राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह करके उन्हें गृहस्थ जीवन के बंधन में बाँध दिया गया ताकि वह अपने एकांत से बाहर आ सकें। परंतु ऐसा नहीं हुआ। शान-शौकत के चमक-दमक वाले राजशाही जीवन से तो वह पहले ही विरक्त थे, परंतु गृहस्थ आश्रम भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका। उन्हें तो केवल एकांत में साधना करना ही प्रिय था।

सिद्धार्थ का जिज्ञासु हृदय गृहस्थ आश्रम के वैभव में संतुष्ट न रह सका। अपने चारों ओर दुख, निराशा, रोग, शोक, संताप और जगत के अनन्य कष्टों को देखकर वह विचलित हो उठे थे। चिन्मय शांति की खोज में एक दिन अर्धरात्रि को वह वन की ओर चल पड़े। अपने पुत्र राहुल और पत्नी यशोधरा का मोह भी उन्हें रोक नहीं सका। एक ही पल में उन्होंने संसार के सभी सुखों को त्याग दिया और वैरागी हो गए। ऐसा वैराग्य भाव करोड़ों में से किसी एक के मन में पैदा होता है। कहने को तो सिर मुंडवाकर और गेहुँआ कपड़े पहनकर लोग शीघ्रता से संत अथवा वैरागी बन जाते हैं, परंतु वे अपने मन से सांसारिक सुखों का त्याग नहीं कर पाते और आजीवन माया-जाल में फँसे रहते हैं।

परंतु भगवान बुद्ध ने तो एक ही पल में सारा सुख और वैभव त्याग दिया था। अंत में उन्होंने वह मार्ग खोज ही लिया जो मनुष्य के मन को शांति की ओर ले जाता है। 49 दिनों तक ध्यानस्थ रहने के बाद इन्हें बुधत्व की प्राप्ति हुई। तब से ये गौतम बुद्ध कहलाने लगे। 80 वर्ष की आयु में गौतम बुद्ध ने अपने शरीर का परित्याग कर निर्वाण को प्राप्त किया। निर्वाण की प्राप्ति के लिए उन्होंने संसार को सद्धर्म का उपदेश दिया। वह धर्म विश्व में बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलित हुआ। आज भी बौद्ध विचारों में शांतिदायितनी स्तवन उठता है और दिशाओं को गुंजायमान करता है-

बुद्धं शरणं गच्छामि संघं शरणं गच्छामि धम्मं शरणं गच्छामि।

महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उन्हें गौतम बुद्ध के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष पहले कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के घर में हुआ था। उनकी माता का नाम महामाया था। महारानी महामाया पुत्र-जन्म के सात दिन बाद स्वर्ग सिधार गईं। माता की बहन गौतमी ने बालक का लालन-पालन  किया।

इस बालक के जन्म से महाराज शुद्धोदन की पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूर्ण हुई थी, इसलिए बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। गौतम नाम इनके गोत्र के कारण पड़ा।

सिद्धार्थ की जन्मपत्री देखकर राज ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि बालक बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती राजा बनेगा या तपस्या के उपरांत महान संत बनेगा। संत बनने की बात सुनकर पिता को चिंता हुई। उन्होंने महल में बालक के आमोद-प्रमोद के लिए सभी इंतजाम कर दिए।

सिद्धार्थ बचपन से ही करुणायुक्त और गंभीर स्वभाव के थे। बड़े होने पर भी उनकी प्रवृत्ति नहीं बदली। तब पिता ने यशोधरा नामक एक सुंदर कन्या के साथ उनका विवाह करा दिया। यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राहुल रखा गया। परंतु सिद्धार्थ का मन गृहस्थी में नहीं रमा। एक दिन वे भ्रमण के लिए निकले। रास्ते में रोगी, वृद्ध और मृतक को देखा तो जीवन की सच्चाई का पता चला। क्या मनुष्य की यही गति है, यह सोचकर वे बेचैन हो उठे।

फिर एक रात्रिकाल में जब महल में सभी सो रहे थे, सिद्धार्थ चुपके से उठे और पत्नी एवं बच्चों को सोता छोड़ वन को चल दिए। उन्होंने वन में कठोर तपस्या आरंभ की। तपस्या से उनका शरीर दुर्बल हो गय परंतु मन को शांति नहीं मिली। तब उन्होंने कठोर तपस्या छोड़कर मध्यम मार्ग चुना।

अंत में वे बिहार के गया नामक स्थान पर पहुँचे और एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गए। एक दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। वे सिद्धार्थ से ‘बुद्ध’ बन गए। वह पेड़ * बोधिवृक्ष’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध सारनाथ पहुँचे। सारनाथ में उन्होंने शिष्यों को पहला उपदेश दिया। उपदेश देने का यह क्रम आजीवन जारी रहा। इसके लिए उन्होंने देश का भ्रमण किया। एक बार वे कपिलवस्तु भी गए जहाँ पत्नी यशोधरा ने उन्हें पुत्र राहुल को भिक्षा के रूप में दे दिया। अस्सी वर्ष की आयु में गौतम बुद्ध निर्वाण को प्राप्त हुए।

बुद्ध के उपदेशों का लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। अनेक राजा और आम नागरिक बुद्ध के अनुयायी बन गए। उनके अनुयायी बौद्ध कहलाए। बौद्ध धर्म को अशोक. कनिष्क तथा हर्ष जैसे राजाओं का आश्रय प्राप्त हुआ। इन राजाओं ने बौद्ध धर्म को । श्रीलंका, बर्मा, सुमात्रा, जावा, चीन, जापान, तिब्बत आदि देशों में फैलाया। महात्मा बुद्ध के उपदेश सीधे-सादे थे। उन्होंने कहा कि संसार दु:खों से भरा हुआ है।

दु:ख का कारण इच्छा या तृष्णा है। इच्छाओं का त्याग कर देने से मनुष्य दु:खों से छूट जाता है। उन्होंने लोगों को बताया कि सम्यक-दृष्टि, सम्यक-भाव, सम्यक-भाषण, सम्यक-व्यवहार, सम्यक निर्वाह, सत्य-पालन, सत्य-विचार और सत्य ध्यान से मनुष्य की तृष्णा मिट जाती है और वह सुखी रहता है। भगवान बुद्ध के उपदेश आज के समय में भी बहुत प्रासंगिक हैं।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक सिद्धार्थ का जन्म ई० पू० 563 में लुम्बिनी नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता शुद्धोदन कपिल- वस्तु के राजा थे। वे शाक्यवंश के क्षत्रिय थे। शिशु का नाम सिद्धार्थं रखा गया। कुछ ही दिनों पश्चात् सिद्धार्थ की माता का देहान्त हो गया। विमाता महामाया ने ही उनका पालन- पोषण किया। सिद्धार्थ की प्रवृत्ति बचपन से ही वैराग्य की ओर थी।

शुद्धोदन चिन्तित रहते थे। उन्होंने सोलह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा से कर दिया। विवाह के उपरान्त यशोधरा से पुत्ररत्न पैदा हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया।

एक वृद्ध, एक रोगी तथा एक शव को देखकर सिद्धार्थ को “पूरी तरह वैराग्य हो गया। । 30 वर्ष की आयु में घर-बार छोड़कर वे संन्यासी बन गए। उन्होंने शास्त्रों तथा दर्शनों का अध्ययन किया, किन्तु उन्हें शान्ति न मिली; तब गया जाकर उन्होंने कठोर तपस्या की। अनशन तथा अन्य क्रिया द्वारा शरीर को कष्ट दिया। छः वर्ष | में उनका शरीर दुर्बल हो गया, किन्तु सत्य की ज्योति न दिखाई दी।

अन्त में उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाया। अब वे गया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे समाधि लगाकर बैठ गए। जहाँ उन्हें | सत्य का प्रकाश दिखाई दिया। अब वे बुद्ध कहलाए।

उन्होंने प्रथम उपदेश वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया। जहाँ पाँच साधु उनके शिष्य बन गए। धीरे-धीरे उनके बहुत से अनुयायी होने लगे। संघ की स्थापना हुई। पैंतालीस वर्ष तक महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया। अस्सी वर्ष की आयु में गोरखपुर जिले में कुशीनगर में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।

महात्मा बुद्ध अहिंसा पर बहुत बल देते थे। यज्ञों में पशुबलिका उन्होंने विरोध किया। महात्मा बुद्ध का कहना था किमनुष्य अपने सदाचार द्वारा उन्नत होता जाए तो कुछ जन्मोंके पश्चात् उसे मोक्ष प्राप्त हो सकेगा। उनकी शिक्षा के निम्नपाँच आदेश कितने सरल और सुन्दर हैं-

(क) तू किसी प्राणी की हत्या न कर। (ख) तू पराई वस्तु को मत ग्रहण कर। (ग) तू झूठ मत बोल। (घ) तू सुरापान मत कर। (ङ) तु अपवित्र जीवन मत व्यतीत कर।

बौद्ध धर्म शीघ्र ही देश-विदेश में फैल गया। राजा-रंकसभी ने इसका स्वागत किया। संसार की जनसंख्या का एकतिहाई भाग आज भी बौद्ध धर्म का अनुयायी है

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महात्मा गौतम बुद्ध का बाल्यकाल का नाम सिद्धार्थ गौतम था। गौतम उनका कुलगोत्र था। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के राजा थे। उनकी रानी का नाम महामाया था। एक दिन मायके जाते हुए, मार्ग में लुंबिनी ग्राम के समीप महामाया ने एक बालक को जन्म दिया। बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही महामाया परलोक सिधार गईं। इसके बाद शिशु का पालन-पोषण उसकी विमाता प्रजावती ने किया, जो शिशु की मौसी भी थी।

एक दिन सिद्धार्थ के चचेरे भाई देवदत्त ने बाण से एक हंस का शिकार करने का प्रयत्न किया। हंस घायल होकर सिद्धार्थ के समीप आ गिरा। दयाभावी सिद्धार्थ ने उसे गोद में लिया और उसका उपचार किया। अपने शिकार को खोजता हुआ देवदत्त भी वहाँ आ निकला। उसने अपना पक्षी माँगा। परंतु सिद्धार्थ ने पक्षी उसे न दिया और कहा, “प्रेम और क्षमा के अधिकार से, जो समस्त अधिकारों से श्रेष्ठ है, यह मेरा है।” राजा शुद्धोदन तक दोनों का विवाद पहुँचा। न्याय ने सिद्धार्थ के ही पक्ष को उचित बताया।

शुद्धोदन ने राजभवन में पुत्र के मनोरंजन के लिए अनेक साधन प्रस्तुत कर रखे थे, परंतु सिद्धार्थ का उन सबमें मन नहीं लगता था। अठारह वर्ष की आयु में पिता ने उसका विवाह कर दिया। यशोधरा जैसी सुंदरी तथा गुणवती पत्नी को पाकर सिद्धार्थ में कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा।

एक दिन सिद्धार्थ की नगर भ्रमण की इच्छा हुई। उसका रथ कुछ दूर ही गया होगा कि उसे एक बुढा मनुष्य दिखाई दिया। उसकी कमर झुकी हुई थी तथा वह लाठी के सहारे चल रहा था। सिद्धार्थ ने इस प्रकार का मनुष्य पहली ही बार देखा था। उसने सारथि से प्रश्न किया कि वह कैसा विचित्र प्राणी है?

सारथि ने उत्तर दिया, “यह वृद्ध है, राजकुमार । प्रत्येक प्राणी को जरा (वृद्धावस्था) के बंधन में पड़ना पड़ता है। इससे कोई बच नहीं सकता, चाहे कोई राजा हो या रंक।” इतना सुनकर सिद्धार्थ गहरी चिंता में डूब गया। वह सोचने लगा कि क्या उसकी प्यारी पत्नी यशोधरा की देह भी एक दिन ऐसी ही हो जाएगी ?

सिद्धार्थ जब दूसरे दिन भ्रमण करने गया तो उसने एक रोगी को देखा और तीसरे दिन एक मृत व्यक्ति के शव को ले जाते देखा। पूछने पर सारथि ने सिद्धार्थ को बताया, “यही संसार की गति है, जो यहाँ आता है, उसे एक दिन मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है।” | सिद्धार्थ सोचने लगा, “क्या मृत्यु ही जीवन का सत्य है? यदि ऐसा ही है तो जीवन के लिए यह धूमधाम क्यों ? क्या मृत्यु से बचने का उपाय मनुष्य के पास नहीं है?” यशोधरा ने विवाह के दस वर्ष बाद एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम राहुल रखा गया, परंतु पुत्र भी सिद्धार्थ को सांसारिक बंधन में आबद्ध न कर सका। बल्कि वह और अधिक चिंतन-लीन रहने लगा।

एक दिन उसने सांसारिक दुःखों से मुक्ति का उपाय–निर्वाण की खोज करने के लिए गृहत्याग कर वैराग्य का आश्रय लिया । प्रिय पत्नी, एकमात्र पुत्र तथा राजसी ऐश्वर्य का परित्याग करके, पीले वस्त्र धारण करके वह सत्य की खोज के लिए वन में चला गया। वैशाख पूर्णिमा के दिन उनका अंत:करण दिव्य आलोक से जगमगा उठा। इस बोध प्राप्ति के कारण ही वे ‘बुद्ध’ कहलाए। इसके बाद उन्होंने अपने विचारों का प्रचार करना आरंभ किया तथा उनका मत बौद्धमत कहलाया।

बोध प्राप्ति के उपरांत बुद्ध वाराणसी पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने पाँच साथियों को अपने मत का उपदेश दिया, जो किसी समय में उनके उपदेशों को अविश्वसनीय मानकर उनका साथ छोड़ गए थे। यहाँ से धर्मचक्र-परिवर्तन आरंभ हुआ। बौद्धमत तीव्रवेग से समस्त भारत में फैलने लगा।

अस्सी वर्ष की आयु तक निरंतर बौद्ध धर्म का प्रचार करते हुए उन्होंने गया में निर्वाण प्राप्त किया। उनके प्रभावशाली उपदेश ‘धम्मपद’ तथा अन्य बौद्ध ग्रंथों में उपलब्ध हैं।

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महात्मा गौतम बुद्ध को लोग भगवान बुद्ध कहकर पुकारते हैं। महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 623 वर्ष पूर्व हुआ था। शैशव काल में आपका नाम सिद्धार्थ था। आपके पिता शुद्धोधन शाक्य वंश के राजा थे। आपके जन्म के सात दिन बाद ही आपकी माता महामाया का देहांत हो गया था। आपका लालन-पालन आपकी मौसी ने किया था। आपके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं।

सुना जाता है कि आपके जन्म से पूर्व माता माया देवी ने यह स्वप्न देखा था कि एक अपूर्व ज्योति उनकी देह में प्रविष्ट हो रही है। महापुरुषों की लीलाएँ वैसे भी विचित्र होती हैं।

शैशवकाल से ही सिद्धार्थ एकांत प्रेमी थे। आपकी एकांतप्रिय प्रवृत्ति आपके पिता के लिए चिंता का विषय थी। सिद्धार्थ एकांत में बैठकर बस चिंतन किया करते थे। आपका विवाह अद्वितीय सुंदरी राजकुमारी यशोधरा से हुआ था। पिता शुद्धोधन और अन्य अनुभवी लोगों की सम्मति से राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह करके उन्हें गृहस्थ जीवन के बंधन में बाँध दिया गया ताकि वह अपने एकांत से बाहर आ सकें।

परंतु ऐसा नहीं हुआ। शान-शौकत के चमक-दमक वाले राजशाही जीवन से तो वह पहले ही विरक्त थे, परंतु गृहस्थ आश्रम भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका। उन्हें तो केवल एकांत में साधना करना ही प्रिय था।

सिद्धार्थ का जिज्ञासु हृदय गृहस्थ आश्रम के वैभव में संतुष्ट न रह सका। अपने चारों ओर दुख, निराशा, रोग, शोक, संताप और जगत के अनन्य कष्टों को देखकर वह विचलित हो उठे थे। चिन्मय शांति की खोज में एक दिन अर्धरात्रि को वह वन की ओर चल पड़े। अपने पुत्र | राहुल और पत्नी यशोधरा का मोह भी उन्हें रोक नहीं सका। एक ही पल में उन्होंने संसार के सभी सुखों को त्याग दिया और वैरागी हो गए। ऐसा वैराग्य भाव करोड़ों में से किसी एक के मन में पैदा होता है।

कहने को तो सिर मुंडवाकर और गेहुँआ कपड़े पहनकर लोग शीघ्रता से संत अथवा वैरागी बन जाते हैं, परंतु वे अपने मन से सांसारिक सुखों का त्याग नहीं कर पाते और आजीवन माया-जाल में फँसे रहते हैं।

परंतु भगवान बुद्ध ने तो एक ही पल में सारा सुख और वैभव त्याग दिया था। अंत में उन्होंने वह मार्ग खोज ही लिया जो मनुष्य के मन को शांति की ओर ले जाता है। 49 दिनों तक ध्यानस्थ रहने के बाद इन्हें बुधत्व की प्राप्ति हुई। तब से ये गौतम बुद्ध कहलाने लगे। 80 वर्ष की आयु में गौतम बुद्ध ने अपने शरीर का परित्याग कर निर्वाण को प्राप्त किया। निर्वाण की प्राप्ति के लिए उन्होंने संसार को सद्धर्म का उपदेश दिया।

वह धर्म विश्व में बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलित हुआ। आज भी बौद्ध विचारों में शांतिदायितनी स्तवन उठता है और दिशाओं को गुंजायमान करता है-

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बुद्ध पूर्णिमा पर निबंध 2022 – Short Essay on Buddha Purnima in Hindi – Buddha Purnima Hindi Nibandh

बुद्ध पूर्णिमा पर निबंध

Buddha Purnima 2022:  बुद्धा पूर्णिमा का यह पवित्र पर्व भगवान् बुद्धा के जन्म की सालगिरह (Buddha’s Birthday) है| बुद्धा को बौद्ध धर्म का संस्तापक माना जाता है| इस पर्व का बौद्ध धर्म में बहुत महत्व है| इस पर्व को भारत के सभी बौद्ध धर्म के अनुयाई बड़ी श्रद्धा से मनाते है| इस पर्व को सबसे ज्यादा उत्तर भारत में मनाया जाता है| यह पर्व वैसाख के महीने में यानि कि अप्रैल या मई के महीने में मनाया जाता है| इस पर्व को वैसाख के महीने में पूर्णिमा की रात को मनाया जाता है| आज के इस पोस्ट में हम आपको बुद्धा पूर्णिमा पर निबंध, हिंदी निबंध फॉर बुद्धा पूर्णिमा, बुद्धा पूर्णिमा एस्से, आदि की जानकारी देंगे|

बुद्ध पूर्णिमा हिंदी निबंध

Buddha Purnima 2022 Date: इस वर्ष बुद्ध पूर्णिमा यानी की वैशाख पूर्णिमा 26 मई के दिन पड़ रही है | इस दिन बुधवार का दिन है जो की अत्यंत शुभ है| आज हम आपके लिए लाये हैं बुद्ध पूर्णिमा एस्से इन हिंदी, गौतम बुद्ध के विचार, महत्व व शायरी, Essay on Buddha Purnima in Hindi, speech on buddha Purnima, बुद्ध पोर्णिमा माहिती मराठी, वैशाख पूर्णिमा, vesak 2021, गौतम बुद्ध पूर्णिमा, Buddha Day, बुद्ध पूर्णिमा सन्देश, bodh purnima,वैशाख पूर्णिमा का महत्व, बुद्ध पूर्णिमा कथा, Buddha Purnima Nibandh यानी की बुद्ध जयंती पर निबंध हिंदी में 100 words, 150 words, 200 words, 400 words जिसे आप pdf download भी कर सकते हैं|साथ ही आप बुद्ध पूर्णिमा पर कविता  व  Few Lines on Buddha Purnima in Hindi  भी देख सकते हैं|आप सभी को  बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनाएं

बुद्ध पूर्णिमा या बुद्ध जयंती बौद्ध धर्म के भगवान बुद्ध के संस्थापक के सम्मान में मनाया जाता है. यह बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण त्योहार है और महान उत्साह के साथ मनाया जाता है . उसी दिन, भगवान् बुद्ध को आत्मज्ञान मिल गया था और निर्वाण या मोक्ष प्राप्त करा कुछ लोगों का मानना ​​है कि “यशोदरा” गौतम पत्नी, उसकी सारथी चन्ना और अपने घोड़े कंटका बुद्ध पूर्णिमा के दिन पैदा हुए थे. इस दिन तीर्थयात्री बुद्ध पूर्णिमा उत्सव में भाग लेने के लिए दुनिया भर से बोधगया के लिए आते हैं. गौतम बुद्ध राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में 566 ई.पू. में कल्पतरु में पैदा हुआ थे, जब युवा राजकुमार ने दूसरो के दर्द और कमजोरी को महसूस किया मतलब वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु को देखा तो वह अपने धन को छोड़ दिया और उच्च सत्य की मांग और एक तपस्वी बनाने का फैसला किया कई सालों के ध्यान अध्ययन, और बलिदान के बाद, उनेहे निर्वाण मिल गया है और वे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए बुद्ध पूर्णिमा का उत्सव : यह दिन प्रार्थना के साथ शुरू होता है, गौतम बुद्ध के जीवन पर उपदेश, समूह ध्यान, बौद्ध धर्म ग्रंथों, धार्मिक प्रवचन, जुलूस, बुद्ध की मूर्ति की पूजा की निरंतर सस्वर पाठ होता है कई लोग बुद्ध के जन्मदिन पर बुद्ध पूर्णिमा के उत्सव में भाग लेने के लिये बोधगया आते हैं. बुद्ध के अनुयायियों इस दिन स्नान करते है और केवल सफेद कपड़े पहनते हैं. चूंकि बुद्ध को ज्ञान पीपल वृक्ष जिसे बोधि वृक्ष भी कहते है के नीचे प्राप्त हुआ था, इस बोधि वृक्ष की विशेष देखभाल और रखरखाव और पानी देय जाता है इस दिन इस पेड़ को भी प्रकाश लैंप और रंगीन झंडे के साथ सजाया है.

Buddha Purnima Short Essay

बुद्ध पूर्णिमा हिंदी निबंध

अक्सर class 1, class 2, class 3, class 4, class 5, class 6, class 7, class 8, class 9, class 10, class 11, class 12 के बच्चो को कहा जाता है write an essay on Buddha Purnima, Buddha jayanti essay, लेख एसेज, anuched, short paragraphs,  गौतम बुद्ध के अनमोल विचार , pdf, Composition, Paragraph, Article हिंदी, निबन्ध (Nibandh), बुद्ध पूर्णिमा का महत्व व बुद्ध पूर्णिमा पर्व का महत्व पर निबंध लिखें|

Short Essay on Buddha Purnima in Hindi (250 words)

‘बुद्ध पूर्णिमा’, बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए सबसे बड़ा त्यौहार होता है। इसको ‘बुद्ध जयंती’ के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा मनाई जाती है। इसीलिये इसे ‘वैशाख पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। यह गौतम बुद्ध की जयंती है। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। बौद्ध धर्म के अनुयायी बुद्ध पूर्णिमा को सम्पूर्ण विश्व मेँ बहुत धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। इस दिन अनेक प्रकार के समारोह आयोजित किए जाते हैं। बुद्ध पूर्णिमा के दिन बौद्ध घरों में दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाया जाता है। बौद्ध धर्म के धर्मग्रंथों का निरंतर पाठ किया जाता है। बुद्ध पूर्णिमा के दिन दान-पुण्य और धर्म-कर्म के अनेक कार्य किए जाते हैं। इस दिन मिष्ठान, सत्तू, जलपात्र, वस्त्र दान करने तथा पितरों का तर्पण करने से बहुत पुण्य की प्राप्ति होती है।

Buddha Jayanti par Nibandh in Hindi

इन बुद्धा पूर्णिमा एस्से को आप Hindi, English, sanskrit, Tamil, Telugu, Marathi, Punjabi, Gujarati, Kannada, Malayalam, Nepali के Language व Font के अनुसार बधाई सन्देश, essay के Image, Wallpapers, Photos, Pictures अपने स्कूल में english essay व hindi भाषा में दिखा सकते हैं| यह 2007, 2008, 2009, 2010, 2011, 2012, 2013, 2014, 2015, 2016, 2017 का full collection है|

बुद्ध पूर्णिमा (वेसाक, बुद्ध दिवस, बुद्ध जयंती, बुद्ध का जन्मदिन) एक वार्षिक बौद्ध त्योहार है, जो पूरे विश्व में बौद्धों द्वारा मनाया जाता है। यह त्यौहार नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, भारत, थाईलैंड, मलेशिया आदि में बहुत लोकप्रिय है। इस त्योहार को अक्सर “बुद्ध का जन्मदिन” कहा जाता है। महत्व: गौतम बुद्ध की जयंती मनाते हुए मनाया जाता है। उन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया और उसी दिन परिनिवार में प्रवेश किया।उत्सव का समय (महीना): बुद्ध पौर्णिमा त्योहार का समय चंद्र स्थान पर निर्भर करता है। चूंकि, चंद्र स्थान की स्थिति अलग-अलग होती है; त्योहार के उत्सव के समय भी तदनुसार भिन्न होता है। भारत में, बुद्ध पौर्णिमा वैसाख महीने की पूर्णिमा की रात (पूर्णिमा) पर मनाया जाता है। यह आम तौर पर अप्रैल या मई के महीने में गिरता है हालांकि, एक अपवाद है। छलांग के वर्षों के दौरान, यह त्योहार जून माह के दौरान मनाया जाता है।बुद्ध पौर्णिमा के दिन, भक्त बौद्ध मंदिरों में बौद्ध मंदिरों में एक साथ इकट्ठा करने के लिए बौद्ध ध्वज फहराया। मंदिर सुंदर रूप से सजाए गए हैं शिक्षकों को फूलों की पेशकश की जाती है भक्तों को हिंसा से बचना और केवल शाकाहारी भोजन स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैभक्त प्रार्थना करते हैं और समूह ध्यान के लिए एक साथ बैठते हैं। इस दिन, बौद्ध भिक्षुओं ने बुद्ध की शिक्षाओं को सिखाना। भक्तों को महान गुरु की शिक्षाओं का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैगौतम बुद्ध की शिक्षाएं सरल थीं। उन्होंने अपने शिष्यों से अपनी शिक्षाओं को अपनी बुद्धि से न्याय करने के लिए कहा और फिर तय करें कि क्या वे अपनी शिक्षाओं का पालन करना चाहते हैं या नहीं। बुद्ध के आठ महान मार्ग सही विश्वास, आशय, भाषण, व्यवहार, प्रयास, आजीविका, चिंतन और एकाग्रता के हैं।

बुद्ध पौर्णिमा माहिती मराठी

बुद्ध पौर्णिमा किंवा बुद्ध जयंती हा बौद्ध धर्माच्या संस्थापक भगवान बुद्धांच्या सन्मानार्थ साजरा केला जातो. हा बौद्ध धर्माचा महत्वाचा सण आहे आणि मोठ्या उत्साहात साजरा केला जातो. त्याच दिवशी भगवान बुद्धांना ज्ञान प्राप्त झाले आणि निर्वाण किंवा मोक्ष प्राप्त झाला होता.काहीांचा असा विश्वास आहे की “यशोदारा” गौतमांच्या पत्नी, त्याचा सारथी चन्ना आणि त्याचा घोडा कांताक बुद्ध पूर्णिमाच्या दिवशी जन्मला होता. या दिवशी बुद्ध पौर्णिमा उत्सवात भाग घेण्यासाठी जगभरातून यात्रेकरू बोधगया येथे येतात. इ.स.पू. 6 566 मध्ये प्रिन्स सिद्धार्थ म्हणून गौतम बुद्ध. माझा जन्म कल्पतरूमध्ये झाला होता, जेव्हा तरुण राजकुमारला इतरांचे दुःख आणि अशक्तपणा जाणवले ज्याचा अर्थ म्हातारपण, रोग आणि मृत्यू पाहून त्याने आपली संपत्ती सोडली आणि उच्च सत्यतेची मागणी करण्याचा आणि अनेक वर्ष तपस्वी ध्यान निर्माण करण्याचा निर्णय घेतला. अभ्यासानंतर आणि बलिदान देताना उणे यांना निर्वाण सापडला आणि तो सिद्धार्थातील गौतम बुद्ध झाला. बुद्ध पौर्णिमेचा उत्सव: दिवसाची सुरुवात, गौतम बुद्धांच्या जीवनावरील प्रवचने, सामूहिक चिंतन, बौद्ध धर्मग्रंथ, धार्मिक प्रवचन, मिरवणुका, बुद्धांच्या मूर्तीपूजनाचे सतत पठण याद्वारे होते. बरेच लोक बुद्धांचा वाढदिवस साजरा करतात. बुद्ध बोधगयामध्ये सहभागी होण्यासाठी येतात. पौर्णिमा उत्सव. बुद्धाचे अनुयायी या दिवशी स्नान करतात आणि केवळ पांढरे कपडे घालतात. बुद्धांना पीपलच्या झाडाखाली ज्ञान प्राप्त झाले ज्याला बोधी वृक्ष देखील म्हटले जाते, या बोधी वृक्षाला विशेष काळजी आणि देखभाल आणि पाणी दिले जाते.या दिवशी हे झाड हलके दिवे आणि रंगीबेरंगी झेंडे देखील सजलेले आहे.

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Essay on Gautam Buddha

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An Introduction

Gautam Buddha is popularly called Lord Buddha or The Buddha. He was a great and religious leader of ancient India. He is regarded as the founder of Buddhism, which is one of the most followed religions in the world today.

The followers of Buddha are now called Buddhists which means the enlightened beings, the ones who have rediscovered the path to freedom starting from ignorance, craving to the cycle of rebirth and suffering. Buddha himself propagated it for nearly 45 years.

His teachings are based on his insights of suffering and dissatisfaction ending in a state called Nirvana.

Gautam Buddha is considered to be one of the greatest religious preachers in the world. He was the preacher of peace and harmony. In this Gautam Buddha essay, you will find one long and one short piece about the epic religious guru followed by many. Studying this piece will help you learn who Gautama Buddha was and what made him choose the path of spirituality. The long and short essay on Gautam Buddha will help students of Class 5 and above to write one on their own. These essays are specially designed so that you can have all the needed information about Gautam Buddha. This essay will help you to understand the life of Gautam Buddha in minimum words. Basically in a few words, this essay gives you a brief detail about Buddha.

Gautam Buddha, the messenger of peace, equality, and fraternity, was born in Lumbini in the 6th Century BC, the Terai region of Nepal. His real name was Siddhartha Gautam. He belonged to the royal family of Kapilavastu. His father was Suddhodhana, the ruler. Maya Devi, Gautam’s mother, died soon after giving birth to him. He was a thoughtful child with a broad mind. He was very disciplined and liked to question contemporary concepts to understand and gather more knowledge.

He wanted to devote his life to spirituality and meditation. This was what his father did not like about him. He went against his father’s wishes to find spirituality. His father was worried that someday, Gautam will leave his family to pursue his wishes. For this, Suddhodhana always guarded his son against the harshness surrounding him. He never let his son leave the palace anytime. When he was 18 years of age, Gautam was married to Yashodhara, a princess with magnificent beauty. They had a son named ‘Rahul’. Even though Siddhartha’s family was complete and happy, he did not find peace. His mind always urged him intending to find the truth beyond the walls.

As per the Buddhist manuscripts, when Siddhartha saw an old man, an ailing person, and a corpse, he understood that nothing in this material world is permanent. All the pleasures he enjoyed were temporary and someday, he had to leave them behind. His mind startled from the realization. He left his family, the throne, and the kingdom behind and started roaming in the forests and places aimlessly. All he wanted was to find the real truth and purpose of life. In his journey, he met with scholars and saints but nobody was able to quench his thirst for truth.

He then commenced meditation with the aim to suffer and then realized the ultimate truth sitting under a huge banyan tree after 6 years. It was in Bodh Gaya in Bihar. He turned 35 and was enlightened. His wisdom knew no boundaries. The tree was named Bodhi Vriksha. He was very satisfied with his newly found knowledge and gave his first speech on enlightenment in Sarnath. He found the ultimate truth behind the sorrows and troubles people face in the world. It was all due to their desires and attraction to earthly things.

A couple of centuries after he died, he came to be known as the Buddha which means the enlightened one. All the teachings of Buddha were compiled in the Vinaya. His teachings were passed to the Indo-Aryan community through oral traditions.

In his lecture, he mentioned the Noble Eightfold Path to conquer desires and attain full control. The first 3 paths described how one can gain physical control. The next 2 paths showed us how to achieve the fullest mental control. The last 2 paths were described to help people attain the highest level of intellect. These paths are described as Right Understanding, Right Thought, Right Speech, Right Action, Right Livelihood, Right Effort, Right Mindfulness, and Right Concentration synchronously.

The title “Buddha” was used by several ancient groups and for each group, it had its meaning. The word Buddhism refers to a living being who has got enlightened and just got up from his phase of ignorance. Buddhism believes that there have been Buddhas in the past before Gautam Buddha and there will be Buddhas in the future also. The Buddhists celebrate the life of Gautam Buddha starting from his birth to his enlightenment and passage into Nirvana stage as well.

In his life, Gautam Buddha had done a lot of spiritual things and lived his life by going through so much. Each suffering and each liberation of his has turned into teachings.

Some of them are explained below:

Finding Liberation: the ultimate motive of our soul is to find liberation.

The Noble truth of Life: for salvation, you need to know about all the four Noble truths of your life.

Suffering is not a Joke:   each suffering leads you to experience a new you.

There are noble eightfold paths that you need to follow.

Death is final, the one who has taken birth will die surely and everything in life is impermeable, you are not going to have anything that will be permanent so focus on salvation rather than pleasing others.

He preached that only sacrifice cannot make a person happy and free from all the bonds he has in the world. He also defined the final goal as Nirvana. Even to this day, his preaching finds meaning and can be related to our sorrows. According to his teachings, the right way of thinking, acting, living, concentrating, etc can lead to such a state. He never asked anyone to sacrifice or pray all day to achieve such a state. This is not the way to gain such a mindful state.

He didn’t mention any god or an almighty controlling our fate. His teachings are the best philosophical thoughts one can follow. Gautam Buddha was his new name after gaining Nirvana and knowing the truth. He was sure that no religion can lead to Nirvana. Only the Noble Eightfold Path can be the way to achieve such a state. He breathed last in 483 BC in Kushinagar, now situated in Uttar Pradesh and his life became an inspiration.

Even after being in a happy family with a loving wife and son, he left his royal kingdom in search of the truth. No one was able to satisfy him with knowledge. He then attained his enlightenment under a banyan tree in Bodh Gaya. He described the Noble Eightfold Path that everyone should follow to get rid of sorrow and unhappiness. He died in 483 BC but his preaching is found to be still relevant to this date. This tells us how Siddhartha became Gautam Buddha. It also tells us about his valuable preaching and shows us the way to achieve Nirvana.

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FAQs on Essay on Gautam Buddha

1. What made Siddhartha realize pleasures are Temporary?

When he first saw an ailing person, a corpse, and an old man, he realized worldly pleasures are temporary. He realized that all the pleasures that this world is running behind are fake. Nothing will stay forever, even the ones whom you love the most will leave you sooner or later, so you should not run behind these material pleasures. Focus on attaining salvation. Everyone who has taken birth will definitely leave one day, the thing that you have today will not be there tomorrow. There is only one soul for yourself. The body or the material things that you are proud of today will leave you tomorrow. Everything is not going to be the same.

2. What did he do to achieve Knowledge and Peace?

Gautam Buddha was more focused on achieving salvation, he wanted to know the truth of life. He wanted to have knowledge of all the things and peace along with Moksha. To receive knowledge and peace, Gautam Buddha left his home and his family behind. He wandered here and there aimlessly just to find peace in his life. Not only this, he talked with many scholars and saints so that he could receive the knowledge of everything that he was searching for. 

3. What did he Preach?

Gautam Buddha was the preacher of peace. In this essay, we are introduced to the preaching of Gautam Buddha. He has taught all about how to receive salvation and attain Nirvana without following any particular religion. Some of his preachings are :

Have respect for your life.

No lying and respect for honesty.

No sexual misconduct and at least you should respect the people of the same community and respect women as well. 

The path of sufferings, truth of causes; these factors will create a path of salvation for you. You need to believe in the reality of life and then move towards attaining the ultimate.

4. Does Gautam Buddha believe in God?

Buddhists actually don't believe in any dainty figure or God but according to them, there are some supernatural powers present in this universe that can help people or they can even encourage people to move toward enlightenment. Gautam Buddha, on seeing people dying and crying, realized that human life is nothing but suffering and all you need to do is get over this materialistic world and lead your life towards attaining salvation. Nothing is permanent nor even this body, so enlighten yourself towards the path of salvation.

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